वाराणसी के सिविल जज ने जो कहा . . . .

वाराणसी के सिविल जज रविकुमार दिवाकर काशी की ज्ञानवापी मस्जिद की वाडियोग्राफी और कोर्ट द्वारा नियुक्त कमिश्नर अजय मिश्र एडवोकेट को हटाये जाने की मुस्लिम पक्ष की याचिका पर क्या निर्णय देते हैं, इस पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई थीं। इस मुद्दे पर कोर्ट के फैसले से देशवासी अवगत हैं अतः इस पर कोई टिप्पणी करने का औचित्व नहीं है। फिर भी सिविल जज के फैसले के बिन्दुओं पर देश के विवेकशील नागरिकों, समाज में सुख शान्ति चाहने वालों और कार्यपालिका की बागडोर थामे बैठे सत्ताधीशों को अवश्य विचार करना चाहिए।

माननीय न्यायधीश ने ज्ञानवापी मस्जिद परिसर की वीडियोग्राफी के संबंध में जो कुछ कहा है उसका मुकदमे के मूल मुद्दे से अधिक देश व प्रदेश की प्रशासनिक मशीनरी की सोच और व्यवस्था से अधिक वास्ता है। जिन लोगों के हाथों में शासन-प्रशासन की बागडोर है, उन्हें उनके कथन को गम्भीरता से लेकर उचित कदम उठाने की जरूरत है।

न्यायधीश महोदय ने अपने निर्णय में कहा है- ‘वादनीगण ने अपने 41 पृष्ठ के वाद में तथ्यों का हवाला देकर कमीशन की कार्यवाही की मांग की थी। इसकी भाषा सुस्पष्ट थी, मगर यह समझ से परे है कि जिला प्रशासन को इतनी स्पष्ट भाषा क्यों समझ में नहीं आई? जिला प्रशासन ने कमीशन की कार्यवाही में रुचि ली होती तो कार्यवाही अब तक सम्पन्न हो गई होती। प्रायः यह देखने को मिलता है कि जिला प्रशासन के अधिकारी अपने अहंकार अथवा घमंड में रहने के कारण कोर्ट के आदेश का अनुपालन कराना उचित नहीं समझते हैं। हाईकोर्ट के आदेश का भी ये अनुपालन नहीं करते, जब तक अवमानना अथवा एनबीडब्ल्यू के जरिये तलब नहीं किये जाते। इलाहाबाद हाईकोर्ट लोकतंत्र का सजग प्रहरी रहा है। लोकतंत्र की रक्षा के लिये पीएम का इलेक्शन रद्द किया और एक मुख्यमंत्री को प्रतिस्थापित किया। जिला प्रशासन के अधिकारी सही बातों को मुख्यमंत्री व शासन के समक्ष नहीं रखते, बल्कि व्यक्तिगत हितों के मद्देनज़र अपना पक्ष रखते हैं। जब इन अफसरों पर अर्थदण्ड लगता है और मामला सुप्रीम कोर्ट जाता है, तब बड़ी मात्रा में सरकार का धन व्यय होता है, जो देश की जनता से कर के रूप में लिया जाता है, यानि यह आम जनता के धन का दुरुपयोग है।’

कार्यपालिका अथवा ब्यूरोक्रेट्स की इस मनोवृत्ति की पीड़ा अकेले वाराणसी के सिविल जज की नहीं है। देश की न्यायपालिका नौकरशाहों की इस मानसिकता से क्षुब्ध रहती है क्योंकि यह उनकी कार्यप्रणाली का अंग बन चुकी है। अभी 6 मई, 2022 को सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायधीश जस्टिस एन. वी. रमण, जस्टिस कृष्णमुरारी और जस्टिस हिमा कोहली ने कोरोना संबंधी एक मामले में उत्तरप्रदेश सरकार के अतिरिक्त एडवोकेट जनरल गरिमा प्रसाद से कहा कि आप अदालत की अवमानना प्रक्रिया शुरू किये जाने से पहले न्यायालय का आदेश नहीं मानते। शीर्ष न्यायालय ने इस केस में राज्य सरकार से वादी को 50 हजार रुपये अदालती खर्च भी दिलवाया। 9 मई को आईएएस रुचि महेश्वरी के केस में मुख्य न्यायधीश जस्टिस एन. वी. रमण ने फिर कहाकि उत्तरप्रदेश के अधिकारी न्यायालय के आदेशों का सम्मान नहीं करते। कई मामलों में इलाहाबाद हाईकोर्ट यही शिकायत कर चुका है। इस उपेक्षावृत्ति से नाराज हो कर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल में डीजीपी पद से हटाये गये आईपीएस मुकुल गोयल को एक मामले में व्यक्तिगत रूप से तलब किया था।

केन्द्र व राज्य सरकारों का कर्त्तव्य है कि वे न्यायपालिका के आदेशों का सम्मान करना सीखें और अपने अधिकारियों को भी सिखायें। कानून की बारीकियों का इस्तेमाल कानून की अवज्ञा के लिये नहीं होना चाहिये। लोग व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका की खामियों से आजिज़ आ कर अदालतों का रुख़ करते है। ऐसे में अदालतों का सम्मान होना ही चाहिये। अच्छा होगा कि केन्द्र का विधि और कार्मिक मंत्रालय सभी विभागाध्यक्षों व राज्य सरकारों को एडवाइजरी जारी करे।

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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