यादों के झरोखे (3)

क्रांतिकारी सन्यासी भीष्म जी !

अभी चन्द दिनों पूर्व आर्यजनों ने पूरे देश में वैदिक संस्कृति के उन्नायक ऋषि द‌यानन्द सरस्वती जी की 200 वीं जयन्ती श्रद्धापूर्वक मनाई। मुजफ्फरनगर जनपद में भी अनेक स्थानों में आर्य समाज के संस्थापक ऋषि द‌यानन्द‌ जी की राष्ट्रभक्ति और भारतीय संस्कृति के पुनरुद्धार में उनके योगदान पर विद्वानों ने चर्चा की।

मुजफ्फरनगर में आर्य संस्कृति एवं आर्य समाज का प्रभाव काफी समय से रहा है। आधुनिकता की दौड़ में हमारे पुरातन मूल्य पिछड़ रहे हैं, यह एक कटु वास्तविकता है फिर भी आज मुजफ्फरनगर में ऐसे महानुभाव हमारे बीच में हैं जो पूर्ण सत्यनिष्ठा के साथ ऋषि द‌यानन्द जी के सन्देश को जन-जन तक पहुंचाने में प्राणपण से लगे हैं, इनमें एक नाम आर्यरत्न आचार्य गुरुदत्त जी आर्य का है।

आदरणीय आर्य जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विषय में कभी विस्तार से लिखने का मन है, अब तो हम महान्‌ आर्य सन्यासी का स्मरण कर रहे हैं, जिनके दर्शन का सौभाग्य आचार्य गुरुदत्त जी की कृपा से प्राप्त हुआ, वे हैं क्रान्तिकारी आर्य सन्यासी स्वामी भीष्म जी। स्वामी जी की क्रांतिकारिता, समाज सेवाओं और आर्य संस्कृति के उत्थान में उनके अप्रतिम योगदान के विषय में पढ़ा-सुना तो बहुत कुछ था किन्तु प्रत्यक्ष रूप से दर्शन का सौभाग्य 12 अप्रैल, 1981 को प्राप्त हुआ जब वे आचार्य जी के आनन्द‌पुरी स्थित आवास पर पधारे थे। वस्तुतः यह अवसर आचार्य जी के पुत्र ओमदत्त जी के यज्ञोपवीत संस्कार का था। स्वामी भीष्म जी इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में पधारे थे। वैदिक रीति से अनुष्ठान संपन्न कराया और वर्तमान परिस्थितियों तथा वेदों के प्रसार-प्रचार और भारतीय संस्कृति अपनाने पर सन्देश दिया। स्वामी जी का भाषण तब ‘देहात’ में प्रकाशित हुआ था। पह‌लवान जैसी कद‌-काठी और वाणी में अपूर्व ओज था।

ऐसे महान्‌ पुरुष के विषय में जानना मन को आनंदित और प्रेरित करता है। स्वामी जी का जन्म 7 मार्च, 1859 में कुरुक्षेत्र के घरौंडा में पांचाल ब्राह्मण परिवार में हुआ। शरीर हष्ट-पुष्ट था, पहलवानी का शौक था। 1877 में कानपुर जा कर सेना में भर्ती हुए। उनका उद्देशय सेना की नौकरी करना नहीं था। सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त कर सेना की पिस्तौल, बंदूक, कारतूस लेकर भाग आये और मेरठ आकर ये शस्त्र क्रान्तिकारियों को सौंप दिये। 1911 में आर्य सन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द जी के संपर्क में आये और उनके शुद्धि अभियान में सक्रिय हो हजारों लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में प्रविष्ट कराया। निरन्तर क्रान्तिकारियों के संपर्क में रहे। 1919 में दिल्ली-गाजियाबाद सीमा पर हिंडन नदी के किनारे ठिकाना बनाया जहाँ अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने वाले यथा- सुभाषचन्द्र ‌बोस, सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, अयातुल्लाह खां, लालबहादुर शास्त्री, चौ. चरणसिंह जैसे लोग शरण लेते थे। 1935 में घरौंडा में भीष्म भवन की स्थापना कर अंग्रेजों की पाबंदी के बावजू‌द उस पर तिरंगा फहराया। निजाम हैद‌राबाद और कासिम रज़वी की सांप्रदायिकता के विरुद्ध सैकड़ों सत्याग्रहियों के साथ हैदराबाद गए और अंग्रेजों की जेल काटी। अपने परम शिष्य स्वामी रामेश्वरानन्द को गुरुकुल घरौंडा का कार्यभार सौंप दिया। उनको लोकसभा सांसद निर्वाचित कराने में पूरी शक्ति लगा दी। हजारों की संख्या में आर्य भजनोपदेशक और वैदिक संस्कृति के प्रचारक बनाये।

स्वामी जी की राष्ट्रसेवा के प्रति आभार प्रकट करने को 23 मई 1981 को कुरुक्षेत्र में तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह, हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भजनलाल, पंजाब केसरी के संपादक लाला जगत नारायण, रामचन्द्र विकल आदि तमाम लोगों ने उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया इस समारोह में आचार्य गुरुदत्त जी भी मुजफ्फरनगर का प्रतिनिधित्व करने कुरुक्षेत्र पहुंचे थे। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री तथा इंदिरा गांधी ने भी क्रान्तिकारी सन्यासी भीष्म जी का अभिनन्दन किया था।

8 जनवरी, 1984 को 125 वर्ष की आयु में प्रातः 3 बजे, ब्रह्म मुहूर्त की वेला में वे संसार से प्रस्थान कर गये।

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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