मुनव्वर राना यह मानने को तैयार नहीं हैं कि पैगम्बर साहब का कार्टून बनाने वाले शिक्षक की हत्या करना अनुचित था। हालांकि खुद को सेक्युलर बताने वाले कुछ टीवी चैनलों ने यह दर्शाने की कोशिश की कि मुनव्वर साहब के कथन को ग़लत तरीक़े से पेश किया गया है किन्तु मुनव्वर साहब इस चमचेबाज़ी से प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने फिर टीवी पर सामने आकर कहा कि मैं अपने विचारों से मुकरा नहीं हूं। यदि मुझे मेरी सच्चाई के कारण जेल हो जाए या फांसी दे दी जाए तब भी मुझे खुशी होगी कि मैं सच बोलता हूं। राना जी का कथन पूरे देश में गूंजा था जिसमे उन्होंने शिक्षक के हत्यारे का डट कर समर्थन करते हुए कहा था कि मैं वहां (फ्रांस में) होता तो मैं भी यही करता।
मुनव्वर राना के स्पष्टीकरण के बाद क्या व्यर्थ की गाल बजाई करने की जरूरत है? हरगिज़ नहीं। इसके बजाय देश के उन तमाम लोगों को जो असल में धर्मनिरपेक्ष हैं, संविधान एवं कानून में विश्वास रखते हैं तथा धार्मिक कट्टरता और कठमुल्लावाद को मानवता विरोधी मानते हैं, यह सोचने की जरूरत है कि हिंसा को हिंसा से खत्म करने की सोच रखने वालों या कीचड़ को कीचड़ से धोने का दावा करने वाले इंसान रूपी भेड़ियों से देश को कैसे बचाया जाए!
हां राना साहब से एक सवाल जरूर पूछा जाना चाहिये कि पैगम्बर साहब का कार्टून बनाने या दिखाने वालों की हत्या करने आप फ्रांस तक जाने को तैयार थे, आप उस वक्त कहां थे जब एम.एस. फ़िदाहुसैन ने हिन्दू देवी का अपमानजनक नग्न चित्र बना कर करोड़ों हिन्दू धर्मावलबियो को आहत किया था? आपने बंबई पहुंचकर फ़िदा हुसैन का सर कलम क्यों नहीं किया?
यही भी पूछा जा सकता है कि पिछले तीन दिनों में मुस्लिम कट्टरपंथियों ने पाकिस्तान के सिंध प्रांत में फ्रांस का विरोध करते हुए तीन मंदिरो को बिस्मार कर दिया और बांग्लादेश में ढाका के पूरबिधिर इलाके की हिन्दू बस्ती में एक दर्जन से अधिक मकानों में आग लगाने के बाद बस्ती के मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया, तो मुनव्वर राना की धर्मनिरपेक्षता कहां चली गई? इस कट्टर धार्मिकता पर उनकी ज़बान क्यूं बंद है?
वास्तविकता यह है कि तथाकथित सेक्युलरवादी और सहिष्णुता का ढोल पीटने वाले भीतर से अति असहिष्णु, कठमुल्ले व एक धर्म की सर्वोच्चता के हामी हैं। पूर्व उपराष्ट्रपति हों, चुनाव आयुक्त रहें हों, आईएएस हों, आईपीएस से रिटायर हों या राहत इंदौरी और मुनव्वर राना जैसे गंगा-जमनी सभ्यता के नकली दावेदार शायर हों, सब की जहनियत एक जैसी है। क्या ये निदा फ़ाज़ली द्वारा कही गई असलियत को कुबूल करेंगे-
उठ-उठ के मस्जिदों से नमाज़ी चले गए,
दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया।
जहां तक शायरों का सवाल है अल्लामा इक़बाल और जोश मलिह्बादी तो बहुत पहले ही पाकिस्तान का रास्ता दिखा गए थे। आपका क्या ख्याल है मुनव्वर साहब? वहां का माहौल आपके लिए बेहतर रहेगा, भले ही वहां लोग आपको मुहाज़िर कहें।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’