कोई समय था जब सहारनपुर सड़कों व गली मोहल्लों में फैली गन्दगी के लिए बदनाम था और मुजफ्फरनगर की सफाई व्यवस्था की मिसाल दी जाती थी। चीफ सेनेटरी इंस्पेक्टर राजकुमार अस्थाना और ब्रज बहादुर अस्थाना सहित कुल चार इंस्पेक्टर शहर और नई मंडी की सफाई व्यवस्था को मुस्तैदी से संभालते थे।
चीफ सहित सभी सेनेटरी इंस्पेक्टर प्रातः चार बजे घोड़ी या साईकिल पर निरीक्षण के लिए निकल जाते थे। सात बजे तक शहर चमाचम हो जाता था। यह सपना नहीं, हकीकत थी।
माना कि तब से शहर का बहुत विस्तार हुआ है। सीमायें बढ़ी हैं और जनसंख्या भी कई गुणा बढ़ गई लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि शहर कूड़ाघर में तब्दील हो जाए। आज मुजफ्फरनगर की असलियत तो यही है। मुजफ्फरनगर के हृदयस्थल शिवमूर्ति के समीप, प्रधान डाकघर के पीछे जिसके ठीक सामने हनुमान मन्दिर और खान-पान की दुकाने हैं, लम्बे अर्से से वहां कूड़ा व गन्दगी पड़ती रही। और तो और, जिस जिला अस्पताल में हजारों रोगी इलाज व स्वास्थ्य रक्षा के लिए आते हैं, उसके समीप दो-दो कूड़ाघर बन गए। एक कूड़ाघर तो मुख्य चिकित्सा अधिकारी कार्यालय की बगल में ही बना दिया गया जहां दर्जनों खान-पान, दाल-रोटी व चाट-पकौड़ी, छोले-भटूरे वाले खड़े होते हैं।
हैरत है कि दशकों से शहर में गन्दगी का यह आलम है और न केवल नगरपालिका परिषद के स्वास्थ्य विभाग वरन जिले के प्रशासनिक अधिकारियों तथा जनप्रतिनिधियों की आंखें इस ओर से बन्द रहीं है। सबसे अधिक दोषी तो शहर के नागरिक हैं जो खुद सफाई व्यवस्था में सहयोग न करने के दोषी हैं।
इसे नगरवासियों का सौभाग्य समझा जाना चाहिए कि नगरपालिका परिषद की नवागंतुक अधिशासी अधिकारी प्रज्ञासिंह ने शहर की बिगड़ी हुई सफाई व्यवस्था को सुधारने का बीड़ा उडाया है। उन्होंने सीएमओ कार्यालय के समीप स्थित कूड़ाघर को स्थायी रूप से बंद कराके निगरानी हेतु कर्मचारी बिठायें और स्वयं नगर के कूड़ा डलाव स्थलों का निरीक्षण कर अपनी आंखों से देखा कि दोपहर 12 बजे तक कूड़ा नहीं उठा है। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी व कर्मचारी निष्ठा से काम नहीं कर रहे। सिर्फ फर्ज अदायगी भर होती है। नागरिकों की जागरूकता और जिम्मेदारी के बिना अकेला कोई अधिकारी निष्ठावान होते हुए भी स्थिति में सुधार नहीं कर सकता।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’