बाबा नागार्जुन ने मुज़फ़्फ़रनगर में सुनाई थी ‘चूल्हा रोया’ कविता

वैद्यनाथ मिश्र यानि बाबा नागार्जुन बिहार के मधुबनी जिले के सतलखा गांव में 30 जून 1911 को जन्मे और 5 नवंबर 1998 को दुनिया छोड़ गए। उनके जन्मदिवस पर इस महान् जनकवि से दो बार हुई अतिक्षणिक मुलाकातों की यादें मस्तिष्क में कौंध गई है।

तब सम्भवत: डॉ विश्वनाथ मिश्र सनातन धर्म महाविद्यालय मुज़फ़्फ़रनगर के प्राचार्य थे। वे प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। उन्होंने एक गोष्ठी में बाबा नागार्जुन को आमंत्रित किया था। सन् मुझे याद नहीं किंतु तब तक आपातकाल नहीं लगा था। वे विद्रोही कवि थे, गोष्ठी में कई धारदार कविताएं सुनाई। देश में भूखमरी व अकाल जैसी स्थिति पर उनकी रचना ‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास’ की जोरों से फरमाइश होने लगी। बाबा ने कहा- ‘पहले नयी रचनायें सुनो, फिर वह भी सुनाऊंगा।’ बाबा बोले- ‘गांधी जी का नाम बेच कर बतलाओ कब तक खाओगे, यम को भी दुर्गन्ध लगेगी, नर्क भला कैसे जाओगे।’ अंत में चूल्हा रोया कविता सुनाई। फिर मंच संयोजक से बोले- ‘मुझे शीघ्र दिल्ली लौटना है, अभी जाऊंगा।’

बाबा नागार्जुन चुपचाप मंच से उतरे, कंधे पर झोला लटकाया और सभागार से बाहर निकल आये। मैं भी उनके पीछे-पीछे चला। आयोजकों में से किसी ने भी उनको कॉलेज के मुख्य द्वार तक छोड़ने की शिष्टता नहीं बरती।

मुख्य द्वार पर पहुंच कर बाबा ने इधर-उधर देखा। मैं उनसे मात्र दो कदमों की दूरी पर था। मेरी ओर देख कर बोले- ‘बेटा, बस अड्डा किधर है, दिल्ली जाऊंगा।’ मैंने कहा- रोडवेज अड्डा दूर है, पैदल नहीं जा सकते। चलिये किसी रिक्शा से छोड़ आता हूं। तब तक भोपा रोड वाला रेलवे पुल नहीं बना था। एक रिक्शा आता दिखा। उसे रोक कर मैंने कहा- बाबा जी को रोडवेज बस अड्डे छोड़ दो। रिक्शा वाले ने कहा- सिंगल सवारी है, 1 रुपया लगेगा। बाबा नागार्जुन से मैंने उन्हें बस अड्डे छोड़ने का इसरार किया, लेकिन वे बोले- ‘नहीं, अकेला चला जाऊंगा।’ और करोड़ों हृदय को झंकृत करने वाला शख्स आम आदमी की तरह कैसे चुपचाप महफ़िल से निकल कर चला गया।

बाबा से महज दो मिनट की मुलाकात मुझे आज की शिष्टता शून्य व्यवस्था की असलियत दिखाती नजर आती है। बाबा नागार्जुन से दूसरी अति सूक्ष्म भेंट सआदतपुर (यमुना विहार) में हुई थी। मौका मिला तो चंद शब्द उस पर भी लिखूंगा।

गोविंद वर्मा
संपादक देहात

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