आज क्रांतिकारी युग पुरुष कबीरदास का 624 वॉ प्राकट्य दिवस है। महान् प्रतिभावों के धनी इस विराट व्यक्तित्व के संत के संबंध में जन्म से लेकर मृत्यु तक नाना भ्रांतियां जुड़ी रही और आज भी जुड़ी है। कितनी विडंबना है कि आज भी प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों को पढ़ाया जाता है कि कबीर विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे जिसने उन्हें लोकलाज के भय से गंगा के किनारे फेंक दिया था और उनकी परवरिश नीरू व नीमा नामक मुस्लिम जुलाहे ने की थी। इसके विपरीत कबीर के अनुयायियों की मान्यता है कि वह गौरीशंकर तथा सरस्वती नामक ब्राह्मण दंपत्ति की संतान थे, जिनका मुस्लिम शासनकाल में धर्मांतरण कर दिया गया था। कबीर के वैवाहिक जीवन को लेकर भी अनेक भ्रांतियां है।
खेद है कि इतिहास ने (जो किवदंतियों पर भी आधारित रहा) तथा देश ने संत कबीर जैसे महान यथार्थवादी, मानवतावादी क्रांतिकारी समाज सुधारक की राष्ट्र एवं समाज के प्रति उनकी उदात्त भावनाओं और संदेशों को दरकिनार कर उनके कवित्व व सन्तता का ही विश्लेषण किया गया, जबकि वे समाज की सड़ी-गली व्यवस्था, पाखंड व आडंबरों पर प्रहार कर समाज को मानवतावादी रूप देना चाहते थे।
जब पश्चिमी विद्वानों एच. एच. विल्सन तथा जी.एच. वेस्टकॉट आदि विद्वानों ने कबीर के विराट व्यक्तित्व की विवेचना की तब भारतीय लेखकों एवं अन्वेषकों ने व्यक्तित्व तथा कृतित्व पर ध्यान देना शुरू किया।
लेकिन आज भी यही यक्ष प्रश्न है कि कबीर की बानी सुनेगा कौन? सैकड़ों बरस पहिले कबीर ने कहा था:
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
भेदभाव तथा नफ़रत की बुनियाद पर राजनीति की इमारत खड़ी करने में जुटे लोग शायद आज भी कबीर की आवाज़ को न सुने और न सुनने दे। परंतु कबीर की महत्ता तथा संदेश युगों युगों तक बनें रहेंगे।
गोविंद वर्मा (संपादक देहात)