नेपाल में छात्रों और युवाओं के व्यापक आंदोलन के दबाव में देश की लोकतांत्रिक सरकार झुक गई। पड़ोसी देश में सोमवार को शुरू हुए हिंसक प्रदर्शन के दूसरे ही दिन प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली ने इस्तीफा दे दिया।
कूटनीतिक सूत्रों के अनुसार, पिछले 12 घंटों में भारत, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान और दक्षिण कोरिया समेत कई देशों की प्रतिक्रियाओं ने ओली पर दबाव बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन देशों ने ओली सरकार के प्रति सहानुभूति नहीं दिखाई, बल्कि शांतिपूर्ण आंदोलन का समर्थन किया। विशेषज्ञों के अनुसार, किसी भी प्रमुख देश से समर्थन न मिलने के कारण ओली सरकार के विकल्प सीमित हो गए थे।
ओली के इस्तीफे के तुरंत बाद भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा कि वह नेपाल में घटनाक्रम पर नजर रख रहा है। मंत्रालय ने कहा कि युवा जीवन के नुकसान से गहरा दुख है और घायल लोगों के शीघ्र स्वस्थ होने की कामना है। भारत ने सभी पक्षों से संयम बरतने और संवाद के माध्यम से समस्याओं का समाधान करने का आग्रह किया। साथ ही, नेपाल में रहने वाले भारतीय नागरिकों से सतर्क रहने और स्थानीय अधिकारियों द्वारा जारी दिशा-निर्देशों का पालन करने की सलाह दी गई।
अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया में ऑस्ट्रेलिया, फिनलैंड, फ्रांस, जापान, दक्षिण कोरिया, ब्रिटेन और अमेरिका के नेपाल स्थित दूतावासों ने संयुक्त बयान जारी किया। बयान में कहा गया कि हिंसा और प्रदर्शनों के दौरान हुई हानि दुखद है। उन्होंने शांतिपूर्ण सभा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन करते हुए सभी पक्षों से संयम बनाए रखने और मौलिक अधिकारों की रक्षा करने की अपील की।
ओली की राजनीतिक छवि हमेशा भारत विरोधी और चीन समर्थक रही है। वे तीन बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने, लेकिन भारत के साथ विश्वासपूर्ण द्विपक्षीय संबंध स्थापित नहीं कर पाए। अपने पहले कार्यकाल में (2015-2016) उन्होंने चीन के साथ ट्रांजिट और परिवहन समझौता किया, जिससे भारत के पारंपरिक व्यापाराधिकार में कमी आई।
दूसरे कार्यकाल (2020) में उन्होंने नया राजनीतिक नक्शा जारी किया, जिसमें लिपुलेख, कालापानी और लिंपियाधुरा क्षेत्रों को नेपाल का हिस्सा दर्शाया गया, जबकि ये क्षेत्र भारत के नियंत्रण में हैं। इस कदम को भारत ने ‘एकतरफा’ करार दिया। ओली ने कई मौकों पर भारत विरोधी बयान भी दिए और सीमा विवाद को हवा दी, जिससे दोनों देशों के बीच तनाव बना रहा।