रक्षा मंत्रालय ने हाल ही में अमेरिकी कंपनी सिग सॉयर से अतिरिक्त 73,000 SIG716 असाल्ट राइफल्स की खरीद के समझौते पर दस्तखत किए हैं। पहले और दूसरे ऑर्डर को मिला कर भारतीय सेना में अब 145,400 SIG716 असाल्ट राइफलें हो जाएंगी। वहीं, इस खरीद का देश की छोटे हथियार निर्माता कंपनियों ने विरोध जताया है और देश की 'मेक इन इंडिया' पहल पर सवाल उठाए हैं। इस मुद्दे पर बड़ी बहस छिड़ गई है। बेंगलुरू की कंपनी एसएसएस डिफेंस ने सार्वजनिक तौर पर देश में बन रहे हथियारों का समर्थन करने के बजाय विदेश में बनीं राइफलें खरीदने के फैसले पर सवाल उठाया है। वहीं, रक्षा सूत्रों का कहना है कि अगर एके-203 राइफलें वक्त पर मिल जातीं, तो SIG716 का ऑर्डर नहीं देना पड़ता।
भारतीय कंपनियों को क्यों रखा जाता है पीछे
अमेरिकी निर्माता सिग सॉयर को 73,000 सिग-716 राइफलों के दूसरे ऑर्डर के फैसले ने 'मेक इन इंडिया' पहल पर बहस छेड़ दी है। इस मामले को सबसे पहले उठाया स्नाइपर और असाल्ट राइफलें बनाने वाली बेंगलुरु की कंपनी एसएसएस डिफेंस के सीईओ विवेक कृष्णन ने। उन्होंने सरकार की विदेश से इस खरीद की कड़ी आलोचना करते हुए मेक-इन-इंडिया पहल पर सवाल उठाए।
विवेक कृष्णन ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखी एक बड़ी पोस्ट के जरिए अपनी निराशा को व्यक्त किया। उन्होंने कहा, हम लंबे समय से खरीदारों से सुनते आ रहे हैं कि हम मेटलर्जी के मामले में उतने सक्षम नहीं हैं या हमारे डिजाइन वक्त से पीछे हैं। यह एक बड़ी चुनौती है। मेरा कहना है कि हर कैलिबर में ग्लोबल बेंचमार्क के साथ अपने स्वदेशी हथियार को रखें और उनकी टेस्टिंग करें और रिजल्ट को सार्वजनिक करें। टेस्ट प्रोटोकॉल स्पष्ट रूप से परिभाषित किए गए हैं। यह दोनों पक्षों के लिए सबसे अच्छा होगा।
देश में ही निकल सकता था समाधान
कृष्णन यहीं नहीं रुके, उन्होंने आगे कहा कि रक्षा मंत्रालय चाहता, तो भारतीय फर्मों को प्रतिस्पर्धा में शामिल करके देश में ही इसका समाधान निकल सकता था। वह कहते हैं कि क्या हमें भारतीय सामान पर गर्व करना चाहिए? अच्छे हथियार बनाना और उन्हें स्वीकार्यता होना एक मुश्किल काम है। भारतीयों ने हमेशा देखा है कि देश के जागने से पहले ही हमारे अपने वैश्विक साथी हमारा सम्मान करते हैं। यह हमारे लिए आत्मसम्मान की बात है। वह कहते हैं, काश सरकार उनसे अब और खरीद न करे। अगर सरकार सरकार निजी कंपनियों को बुलाती और भारतीय डिजाइन और उनके सामान पर जोर देती, तो आसानी से एक या कई प्रतियोगी सामने आ जाते।
वायुसेना के उप प्रमुख ने भी उठाए थे सवाल
बता दें कि इससे पहले वायुसेना के उप प्रमुख एयर मार्शल एपी सिंह भी कह चुके हैं कि आत्मनिर्भरता राष्ट्र की रक्षा की कीमत पर नहीं हो सकती। राष्ट्र की रक्षा सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा था कि आज की भू-राजनीति से हमने जो सबसे बड़ा सबक सीखा है, वह है आत्मनिर्भर होना। 'आत्मनिर्भरता' केवल एक शब्द नहीं है, बल्कि यह कुछ ऐसा है, जिसमें हमें अपना दिल और आत्मा लगाने की जरूरत है। उन्होंने आगे कहा था कि जिन टेक्नोलॉजी और हथियारों के बारे में हम बात कर रहे हैं, वे सभी भारत में ही विकसित और निर्मित हों। हमें किसी बाहरी एजेंसी पर निर्भर न रहना पड़े। जो समय आने पर हमारा साथ छोड़ भी सकते हैं या हमारे देश में हथियारों की सप्लाई रोक भी सकते हैं। यहां तक कि समय आने पर हमें मुश्किल में डाल सकते हैं।
सरकार ने प्रोक्योरमेंट मैनुअल का नाम बदल कर किया "मेक-इन-इंडिया"
विवेक कृष्णन की बात से पूर्व सैन्य अधिकारी भी इत्तेफाक रखते हैं। कांग्रेस पार्टी के 'पूर्व सैनिक विभाग' के राष्ट्रीय अध्यक्ष रिटायर्ड कर्नल रोहित चौधरी बातचीत के दौरान मोदी सरकार की मेक-इन-इंडिया पहल पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि यूपीए शासनकाल के दौरान 2006 में लाए गए प्रोक्योरमेंट मैनुअल का नाम बदल कर "मेक-इन-इंडिया" कर दिया है। इस लाने का उद्देश्य ही यही था कि रक्षा क्षेत्र में स्वदेशी कंपनियों को बढ़ावा मिले। वह कहते हैं कि हमारे देश में भी असाल्ट राइफलें बनती थीं, डीआरडीओ के साथ मिल कर हमनें वर्ल्ड क्लास राइफलें बनाई हैं। लेकिन पिछले 10 सालों में सब कुछ दांव पर लग गया है। कर्नल रोहित चौधरी के मुताबिक यूपीए सरकार के दौरान डिफेंस सेक्टर में एफडीआई लेकर आए, शुरू में यह 26 फीसदी था, जिसे 2012-13 में बढ़ा कर 49 फीसदी किया गया। वहीं कुछ चीजों के लिए इसे 74 फीसदी तक बढ़ाया गया। जिससे देश में बेहतरीन हथियार बनने लगे और स्वदेशी कंपनियों को मौका मिला।
कर्नल रोहित ने सरकार की नीतियों पर उठाए सवाल
कर्नल रोहित के मुताबिक साल 2006 में यूपीए सरकार ने रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने के उद्देश्य से “बॉय”, “बॉय एंड मेक” और “मेक” पॉलिसी लाई थी। इसमें ऑफ द शेल्फ के तहत देश की छोटी कंपनियों से खरीद की जानी थी। वहीं बॉय एंड मेक नीति के तहत विदेश से हथियारों को कम संख्या में खरीद कर टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के जरिए देश में ही बनाया जाएगा।
इस नीति से स्वदेशी कंपनियों को रक्षा क्षेत्र में हथियार विकसित करने का मौका मिला औऱ उन्होंने रडार टेक्नोलॉजी में विशेषज्ञता हासिल की। कई तरह की मिसाइलों का निर्माण भारत में किया गया। वह कहते हैं कि लेकिन सरकार अगर ऑफ द शेल्फ के तहत विदेश से राइफलें खरीद रही है, तो पिछले 10 सालों में आपने क्या डेवलप किया। निजी क्षेत्र की कंपनियों को मौका क्यों नहीं दिया गया। वह सवाल उठाते हुए कहते हैं कि क्या इस खरीद में सरकार का कोई निजी हित है, अगर आप ऐसा कर रहे हैं तो देश की नैचुरल (स्वदेशी) इंडस्ट्री को खत्म कर रहे हैं।
सेना में मॉर्डनाइजेशन के साथ यूनिफॉर्मिटी जरूरी
वहीं इस मसले पर सेना के सूत्रों का भी कहना है कि आत्मनिर्भर भारत पहल का क्या हुआ। जो अब हमें छोटे हथियार भी विदेश से खरीद रहे हैं। सेना के एक वरिष्ठ अफसर ने नाम न छापने के अनुरोध पर बताया कि हमारे पास विकल्प ही कहां है। हम सेना में कई तरह के हथियार नहीं रख सकते। सेना में मॉर्डनाइजेशन के साथ यूनिफॉर्मिटी भी लानी है। अलग-अलग हथियार रहेंगे, तो एम्यूनिशन प्रोक्योर करने में दिक्कत होगी। वह कहते हैं कि हमने तो असॉल्ट राइफलों की कमी को पूरा करने के लिए देश में ही AK-203 असॉल्ट राइफलें बनाने के लिए जुलाई 2021 में रूस के साथ 5000 करोड़ रुपये का सौदा भी किया था। जिसके तहत 6.7 लाख से ज्यादा AK-203 असॉल्ट राइफलें बनाई जानी थीं।
लेकिन रूस-यूक्रेन युदेध की वजह से डिलीवरी नहीं पा रही है। अभी तक केवल 62000 AK-203 असॉल्ट राइफल्स की ही डिलीवरी हुई है। लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि हम हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाएं। हमें एक तरफ पाकिस्तान से तो दूसरी तरफ चीन से चुनौती है। जम्मू में रोजाना ही आतंकरोधी ऑपरेशन हो रहे हैं और चीन अपनी रक्षा तैयारियों में जुटा है। वह आगे कहते हैं कि स्वदेशी राइफल के नाम पर हमारे पास केवल इंसास थी, लेकिन बदलते वक्त की जरूरतों को देखते हुए उसका कैलिबर (5.56 x 45 मिमी) काफी कम है। इसलिए हमने 7.62x51 मिमी कैलिबर वाली राइफलों को चुना। वहीं, AK-203 राइफल की कैलिबर कैपेसिटी 7.62x39 मिमी है।
सेना में अब बस केवल दो तरह की राइफलें
वहीं, रक्षा मामलों के जानकार और पूर्व सैन्य अधिकारी रोहित वत्स इस खरीद का समर्थन करते हैं। वह कहते हैं कि भले ही हमारे पास ऐसे हथियार बनाने वाली स्वदेशी कंपनियां मौजूद हैं, लेकिन भारतीय सेना की इन्फैंट्री बटालियनों को कई तरह की राइफलों की जरूरत ही क्या है। सेना अब दो तरह के हथियार ही इस्तेमाल करे तो बेहतर है।
7.62x51 एमएम कैलिबर वाली सिग-716 फ्रंटलाइन इन्फ्रैंट्री इस्तेमाल करे, जबकि 7.62x39 एमएम कैलिबर वाली एके-203 राइफल सेना बाकी जगह यूज करे। वह कहते हैं कि 72,400 Sig-716 राइफलें पहले से ही फ्रंटलाइन इन्फैंट्री बटालियनों के पास हैं। अगर हमें और राइफलें चाहिए तो हमें SIG-716 की खरीद करनी होगी। सेना में लगभग 400 इन्फैंट्री बटालियनें हैं और प्रत्येक में 800 सैनिक हैं, तो इस लिहाज से हमें 320,000 असाल्ट राइफलों की जरूरत है। वहीं इसमें अभी 66 राष्ट्रीय राइफल्स की बटालियों को नहीं गिना गया है, जिनके पास एके सीरीज की असाल्ट राइफलें हैं।
एक ही निर्माता को टेंडर देना ठीक
रोहित वत्स कहते हैं इतना बड़ा ऑर्डर एक ही निर्माता को देना ठीक है। इससे पुर्जों की समानता, रखरखाव और लॉजिस्टिक्स में आसानी होगी। साथ ही, प्रति यूनिट लागत भी कम होगी। वह कहते हैं कि भारत में एक-दो कंपनियों को छोड़ दें, तो बाकी किसी कंपनी में इतनी क्षमता नहीं है, जो इतने बड़े ऑर्डर को पूरा कर सके। ऐसे में अलग-अलग टेंडर निकालने पड़ेंगे, जिन्हें पूरा न हो सकने की स्थिति में रद्द करना पड़ता है।