राष्ट्रपति-राज्यपाल के फैसलों को चुनौती नहीं दे सकतीं राज्य सरकारें: केंद्र ने एससी में रखा पक्ष

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि विधानसभा से पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा लिए गए निर्णयों को राज्य सरकारें अदालत में चुनौती नहीं दे सकतीं। सरकार का कहना है कि ऐसी याचिकाएं अनुच्छेद 32 के तहत भी स्वीकार्य नहीं हैं, भले ही राज्य यह दावा करे कि इससे नागरिकों के मौलिक अधिकार प्रभावित हुए हैं।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह दलील चीफ जस्टिस बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ के सामने दी। पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर भी शामिल थे। मेहता ने बताया कि राष्ट्रपति ने अदालत से राय मांगी है कि क्या राज्य सरकारें अनुच्छेद 32 के तहत ऐसी याचिका दायर कर सकती हैं और अनुच्छेद 361 (जिसके तहत राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने कर्तव्यों के निर्वहन में अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं होते) का दायरा क्या है।

मेहता ने कहा कि अतीत में इन सवालों पर बहस हो चुकी है, लेकिन राष्ट्रपति का मानना है कि भविष्य की स्थिति को देखते हुए अदालत की स्पष्ट राय आवश्यक है। उनका तर्क था कि अनुच्छेद 32 का प्रयोग केवल तब होता है जब किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ हो, जबकि राज्य सरकार स्वयं मौलिक अधिकारों की धारक नहीं है।

इस दौरान सीजेआई ने टिप्पणी की कि किसी विधेयक को छह महीने तक लंबित रखना उचित नहीं है। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि यदि अदालत स्वयं किसी मामले को दस साल तक लटका दे, तो क्या राष्ट्रपति अदालत को आदेश देने का अधिकार रखेंगे?

मामले की सुनवाई अभी जारी है। इससे पहले 26 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने यह प्रश्न उठाया था कि यदि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयकों पर निर्णय टालते हैं, तो क्या अदालत के पास कोई उपाय उपलब्ध होगा? शीर्ष अदालत राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143(1) के तहत भेजे गए उस संदर्भ पर विचार कर रही है, जिसमें पूछा गया है कि क्या कोर्ट राष्ट्रपति या राज्यपाल को विधानसभा से पारित विधेयकों पर समयबद्ध निर्णय लेने के लिए बाध्य कर सकती है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here