देशभर में उच्च न्यायिक सेवा (HJS) अधिकारियों की वरिष्ठता निर्धारित करने के लिए एक समान राष्ट्रीय मानक बनाने के मुद्दे पर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया। इस मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने की, जिसमें जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, के. विनोद चंद्रन और जॉयमल्या बागची शामिल थे।
पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि देश के कई राज्यों में सिविल जज (सीजे) अपने पूरे करियर में प्रिंसिपल डिस्ट्रिक्ट जज (PDJ) के पद तक भी नहीं पहुंच पाते, जिससे उच्च न्यायपालिका तक उनकी पदोन्नति की संभावना लगभग समाप्त हो जाती है। अदालत ने यह भी टिप्पणी की कि इस स्थिति के कारण कई योग्य युवा वकील न्यायिक सेवा में शामिल होने से हिचकते हैं।
सुनवाई के मुख्य बिंदु
संविधान पीठ ने 28 अक्तूबर से इस मुद्दे पर विस्तृत सुनवाई शुरू की थी। अदालत यह तय करना चाहती है कि देशभर में उच्च न्यायिक सेवा में सीनियरिटी तय करने का समान मानदंड बनाया जाए या नहीं। साथ ही, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि इस दौरान पदोन्नति से जुड़े अन्य पहलुओं पर भी विचार किया जाएगा।
पक्षकारों की दलीलें
अमाइकस क्यूरी सिद्धार्थ भटनागर ने कहा कि अधिकांश राज्यों में पदोन्नति पूरी तरह वरिष्ठता पर निर्भर है, जिससे मेधावी अधिकारियों को पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाते। उन्होंने बताया कि वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (ACR) के मूल्यांकन में भी एकरूपता का अभाव है।
वहीं, वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी, जो इलाहाबाद हाईकोर्ट की ओर से पेश हुए, ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि कोई एक समान नियम लागू न किया जाए। उनके अनुसार, संविधान ने हाईकोर्ट को निचली न्यायपालिका के प्रशासनिक अधिकार दिए हैं, इसलिए सीनियरिटी तय करने का अधिकार भी उन्हीं के पास रहना चाहिए।
लंबा चला मामला
वरिष्ठता और पदोन्नति से जुड़ा यह विवाद 1989 में दायर ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन (AIJA) की याचिका से जुड़ा है। 7 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों के न्यायाधीशों की पदोन्नति में आने वाली बाधाओं और करियर में ठहराव से संबंधित मुद्दों को पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को भेजा था।
अब शीर्ष अदालत का फैसला यह तय करेगा कि क्या देशभर में न्यायिक अधिकारियों की वरिष्ठता तय करने के लिए एक राष्ट्रीय एकरूप नीति लागू की जा सकती है या यह निर्णय राज्य की हाईकोर्ट्स के विवेक पर ही रहेगा।