सवाल शफीकुर्रहमान की विरासत का !

गत 27 फरवरी को संभल से समाजवादी पार्टी के लोकसभा सदस्य डॉ. शफीकुर्रहमान बर्क खुदा को प्यारे हो गये थे। इस बीच खबर आई कि संभल से सपा के विधायक इकबाल महमूद मरहूम बर्क साहब की जगह लेना चाहते हैं और सपा के टिकट के अभिलाषी हैं।

इन चर्चाओं के बीच स्वर्गीय बर्क के पौत्र जियाउर्रहमान, जो कुंदरकी से सपा के विधायक हैं, ने कहा है कि वे अपने दादा की विरासत के हकदार हैं और इस विरासत की बहबूदी (रक्षा) के लिए वे लोकसभा में जाना चाहेंगे।

डॉ. शफीकुर्रहमान बर्क की विरासत क्या है? एकमुश्त मुस्लिम वोट! लोकतांत्रिक व्यवस्था में वोट नेताओं का जबरदस्त हथियार है, डॉ. बर्क इस वास्तविकता को भलीभांति समझ चुके थे। वे पहला विधाय‌की का चुनाव 1967 में लड़े और जीते। उन्होंने हिन्दुओं, हिन्दूवादी संगठनों तथा भारतीय संस्कृति एवं हिन्दू आस्थाओं पर निरंतर प्रहार कर‌ने की रणनीति अपना कर मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण कर मजबूत वोट बैंक तैयार किया। डॉ. बर्क के पास मुस्लिमों का सुरक्षिक वोटबैंक होने के कारण इन्हें विभिन्न राजनीतिक द‌ल समय समय पर अपना उम्मीदवार बनाते रहे। अपने 52 वर्षों के राजनीतिक जीवन में वे स्वतंत्र पार्टी, बीकेडी, जनता पार्टी, जनता दल, कांग्रेस यू, लोकदल, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय परिवर्तन दल आदि 10 पार्टियों के टिकट पर 17 बार चुनाव लड़े। हारे भी जीते भी। इन राजनीतिक दलों की नीतियों से उनका कुछ भी लेना देना नहीं था। हिन्दू-मुस्लिम एकता या भाईचारे का नाम लेकर मुस्लिमों को गुमराह करना, भड़काना और उन्हें मुख्य राष्ट्रीय धारा से पृथक करना, साम्प्रदायिक आधार पर एकजुट कर मुस्लिम वोट बैंक बनाना डॉ. बर्क का हुनर था।

इसी विरासत की रक्षा के लिए उनका पोता आगे बढ़ा है, यद्यपि वह भारतीय आस्थाओं और भारतीय सरोकारों पर चोट करने में अपने दादा से कम नहीं है। अनुच्छेद 370 की समाप्ति, 3 तलाक, सीएए, समान नागरिक संहिता आदि पर जियाउर्रहमान जहरीले बयान देते रहे हैं। मुस्लिम वोट बैंक की चाहत वाला हर नेता यही करता है। समाजवादी पार्टी हो या कोई तथाकथित सेक्यूलर दल, उसे ऐसे ही नेताओं की दरकार है, तभी तो अखिलेश यादव ने आजमगढ़‌ के उपचुनाव में 2 लाख 66 हजार वोट हासिल करने वाले गुड्डू जमाली को सपा में शामिल किया है। सपा अध्यक्ष डॉ. बर्क की विरासत का ध्यान रखेंगे या इकबाल महमूद को मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण का मौका देंगे यह जल्दी ही स्पष्ट हो जायेगा।

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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