हिंदू पंचांग के अनुसार, आज कार्तिक पूर्णिमा का पावन दिन है। यह तिथि धार्मिक दृष्टि से अत्यंत शुभ मानी जाती है। मान्यता है कि इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने और दान-पुण्य करने से अक्षय फल प्राप्त होता है। कार्तिक पूर्णिमा को भगवान विष्णु और भगवान शिव की विशेष पूजा का दिन भी कहा गया है। इस अवसर पर व्रत, पूजा-पाठ और कथा श्रवण का अत्यंत महत्व होता है।
त्रिपुरारी पूर्णिमा की कथा
पौराणिक मान्यता के अनुसार, भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर नामक राक्षस का वध कर देवताओं को उसके अत्याचारों से मुक्त कराया था। तारकासुर के तीन पुत्र—तारकक्ष, कमला और विद्युन्माली—अपने पिता की मृत्यु से क्रोधित होकर देवताओं से प्रतिशोध लेने के लिए कठोर तपस्या में लीन हो गए। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मदेव ने उन्हें वरदान देने की इच्छा जताई।
तीनों भाइयों ने ब्रह्मा से अमरता का वर मांगा, लेकिन ब्रह्मा जी ने यह वरदान देने से असमर्थता जताई। इसके बाद उन्होंने ब्रह्मदेव से तीन अद्भुत नगरों की मांग की—एक स्वर्ण का, एक रजत (चांदी) का और एक लौह (लोहे) का। साथ ही उन्होंने शर्त रखी कि हजार वर्षों बाद जब ये तीनों नगर एक साथ मिलें, तभी कोई देवता उन्हें एक ही बाण से नष्ट कर सके और उसी के हाथों उनका अंत हो।
ब्रह्मदेव ने उनकी मांग स्वीकार की, और इस वरदान के प्रभाव से तीनों दैत्य भाइयों ने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य जमा लिया। जब उनका अत्याचार बढ़ा, तो इंद्र और अन्य देवता भयभीत होकर भगवान शिव की शरण में पहुंचे।
तब भगवान शिव ने एक दिव्य रथ का निर्माण किया—जिसमें सूर्य और चंद्रमा पहिए बने, इंद्र, यम, कुबेर और वरुण रथ के घोड़े बने, हिमालय धनुष बना और शेषनाग उसकी प्रत्यंचा। फिर भगवान शिव स्वयं उस रथ पर सवार होकर त्रिपुर नामक नगरों की ओर प्रस्थान किए।
युद्ध में भगवान शिव ने अपने दिव्य बाण से एक ही बार में तीनों नगरों को भस्म कर दिया और दैत्यों का अंत किया। कहा जाता है कि यह दिव्य घटना कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही घटी थी, इसलिए इस तिथि को त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहा जाता है। दैत्यों के विनाश के बाद देवताओं ने दीप जलाकर भगवान शिव की आराधना की और इस दिन से दीपदान की परंपरा आरंभ हुई।
यह दिन न केवल आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह बुराई पर अच्छाई की विजय और आत्मशुद्धि का संदेश भी देता है।