सनातन भारतीय संस्कृति विश्व की ऐसी संस्कृति है, जो दम्भ, अहंकार, घृणा, ईष्या आदि मानवीय विकारों के शमन का मार्ग प्रशस्त करती है। अपनी गलतियों के लिए प्रायश्चित करना और क्षमा मांगना कुबुद्धि-जनित विकारों को नष्ट करने का सरलतम उपाय है। क्षमा सभी विकारों की जड़-अहंकार का मर्दन करती है और मन में शान्ति सद्भाव उत्पन्न करती है।
भगवान् महावीर ने सम्पूर्ण विश्व को क्षमा की महत्ता से परिचित कराया। प्राचीन भारत के ऋषियों ने क्षमा को प्रत्येक दृष्टि से श्रेष्ठ माना है: “क्षमा बलमशक्तानाम् शक्तानाम् भूषणम् क्षमा। क्षमा वशीकृते लोके क्षमयाः किम् न सिद्ध्यति।” क्षमा अशक्तों का बल है, शक्तिशालियों का आभूषण है, क्षमा संसार को वश में कर लेती है। क्षमा से सब कुछ सध जाता है।
बचपन में रहीम का दोहा पढ़ा था: आपने भी पढ़ा होगा: ‘छिमा बड़न को चाहिए, छोटन को उतपात। का रहिमन हरि को घट्यो, जो भृगु मारी लात।’ जैन धर्म के मुनियों एवं आचार्यों ने जीवन पर्यन्त क्षमा के महत्व का गुणगान किया। मैंने आचार्य महाप्रज्ञ के अनेक सन्देश “देहात” में प्रकाशित किये हैं। यह जीवन की विडम्बा रही कि झूठे अहंकार और दम्भ तथा मज़बूरी के वशीभूत हो कर क्षमा के महत्व को समझ नहीं सका।
17 दिन मेदान्ता अस्पताल में भर्ती रहने के बाद ईश्वर की कृपा से घर लौटा तो दिल की अतल गहराइयों से महसूस किया कि अपने आचरण, व्यावहार, वाणी एवं कर्म से मैंने असंख्य लोगों का दिल दुखाया, सन्ताप दिया। इनमें बंधु-बांधव, परिजन, मित्र, सहयोगियों से लेकर “देहात” में कार्य करने वाले सहयोगी, समाज के विभिन्न महानुभाव, बड़ी संख्या में शामिल हैं। बीमारी से उठने के बाद, पूर्णरूप से स्वस्थ न होते हुए भी मेरी आत्मा ने मुझे झकझोरा तो इन महानुभावों से क्षमा चाही है। क्षमावाणी दिवस पर मैं उन सभी सज्जनों से – जो मुझ से आयु में छोटे भी हैं, समकक्ष हैं, और बड़े भी हैं, ईश्वर को हाज़िर-नाज़िर जान कर क्षमाप्रार्थी हूं।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’