नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमों में आरोप तय करने में हो रही लंबी देरी पर गंभीर चिंता जताई है। शीर्ष अदालत ने कहा कि कई मामलों में आरोपपत्र दाखिल होने के बाद भी आरोप तय करने में तीन से चार साल तक लग जाते हैं, जो न्याय प्रक्रिया की गति पर सवाल खड़े करता है। अदालत ने संकेत दिए हैं कि इस मुद्दे पर अब देशभर के लिए समान दिशानिर्देश जारी किए जा सकते हैं।

बुधवार को न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजारिया की पीठ ने बिहार के एक मामले की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNS) के अनुसार, पहली सुनवाई के 60 दिन के भीतर आरोप तय होने चाहिए, लेकिन वास्तविकता इससे काफी भिन्न है।


अटॉर्नी जनरल और सालिसिटर जनरल से मांगी मदद

पीठ ने मामले में विचार-विमर्श के लिए अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी और सालिसिटर जनरल तुषार मेहता से सहयोग का अनुरोध किया है। साथ ही, वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा और नागामुत्थू को अमाइकस क्यूरी (न्यायमित्र) के रूप में नियुक्त किया गया है। अदालत ने कहा कि सुनवाई के दौरान यह बताया जाए कि नए कानून में तय टाइमलाइन का पालन किस हद तक हो रहा है।


बिहार के मामले से शुरू हुई बहस

यह टिप्पणियां बिहार के एक विचाराधीन कैदी अमन कुमार की जमानत याचिका पर सुनवाई के दौरान की गईं। अमन कुमार के खिलाफ डकैती और हत्या के प्रयास का मामला दर्ज है। पुलिस ने 30 सितंबर 2024 को आरोपपत्र दाखिल किया था, लेकिन अब तक आरोप तय नहीं हुए हैं। जमानत याचिका खारिज होने के बाद आरोपी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जिसमें उसने तर्क दिया कि उसे अनिश्चितकाल तक विचाराधीन कैदी के रूप में नहीं रखा जा सकता।


कोर्ट की कड़ी टिप्पणी

पीठ ने कहा, “जब एक बार आरोपपत्र दाखिल हो जाता है, तो आरोप तय करने में इतनी देरी क्यों होती है? यह स्थिति अस्वीकार्य है।” अदालत ने कहा कि पूरे देश में एक समान प्रक्रिया सुनिश्चित करने की जरूरत है, ताकि मुकदमे की शुरुआती अवस्था में ही आरोप तय होकर सुनवाई की राह साफ हो सके।

मामले की अगली सुनवाई 19 नवंबर को निर्धारित की गई है। कोर्ट ने इस संबंध में सभी केस दस्तावेज अटॉर्नी जनरल को भेजने का निर्देश दिया है।