नागपुर: बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर खंडपीठ ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि नाबालिग के खिलाफ यौन अपराध में मामूली पेनिट्रेशन भी बलात्कार की श्रेणी में आता है और इस मामले में नाबालिग की सहमति का कोई महत्व नहीं है। कोर्ट ने यह निर्णय पॉक्सो (Protection of Children from Sexual Offences) अधिनियम के तहत बच्चों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए सुनाया।

मामले की पृष्ठभूमि में वर्धा जिले के हिंगनघाट का 38 वर्षीय ड्राइवर है, जिसे दो नाबालिग लड़कियों (5 और 6 साल) पर यौन हमला करने के प्रयास के लिए 10 साल की सजा और 50,000 रुपये का जुर्माना सुनाया गया था। हाईकोर्ट ने आरोपी की अपील खारिज करते हुए यह सजा बरकरार रखी।

कोर्ट के निष्कर्ष
जस्टिस निवेदिता मेहता ने कहा कि नाबालिग के निजी अंगों में किसी भी अंग से प्रवेश करना बलात्कार या गंभीर यौन हमला माना जाएगा, और पेनिट्रेशन की गहराई की कोई भूमिका नहीं होती।

अपराध का तरीका
अभियोजन के अनुसार आरोपी ने बच्चों को अमरूद का लालच देकर और अश्लील वीडियो दिखाकर यौन हमला करने का प्रयास किया। कोर्ट ने पाया कि पीड़िताओं और उनकी मां के बयानों के साथ मेडिकल और फॉरेंसिक साक्ष्यों ने मामले को साबित किया।

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि 15 दिन बाद मेडिकल जांच में चोट के निशान न होने पर अपराध की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, क्योंकि नाबालिगों की कम उम्र के कारण चोट जल्दी ठीक हो सकती है।

आरोपी के दावे खारिज
आरोपी ने परिवारिक दुश्मनी के आधार पर झूठा फंसाने का दावा किया, लेकिन कोर्ट ने इसे सबूतों के अभाव में खारिज कर दिया। FIR दर्ज करने में देरी को भी उचित ठहराया गया, क्योंकि पीड़िताएं कम उम्र की थीं और आरोपी ने उन्हें धमकाया था।

पॉक्सो एक्ट के पुराने प्रावधानों की सुधार
हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की गलती को भी सुधारते हुए कहा कि 2019 में संशोधित पॉक्सो एक्ट के प्रावधानों को गलत तरीके से लागू किया गया था। अपराध 19 फरवरी 2014 को हुआ था, इसलिए उस समय लागू कानून के अनुसार ही सजा तय की जानी चाहिए थी। जस्टिस मेहता ने कहा कि ट्रायल कोर्ट का 20 साल की न्यूनतम सजा और पॉक्सो की धारा 18 का उपयोग गलत था।

हालांकि, कोर्ट ने यह भी माना कि 10 साल की सजा उस समय के पॉक्सो एक्ट के अनुसार न्यूनतम सजा के अनुरूप थी, इसलिए सजा में कोई बदलाव नहीं किया गया।