पंजाब के तरनतारन जिले में वर्ष 1993 में हुए फर्जी मुठभेड़ मामले में दोषी पाए गए पंजाब पुलिस के पांच पूर्व अधिकारियों को सोमवार को उम्रकैद की सजा सुनाई गई। यह फैसला मोहाली स्थित सीबीआई की विशेष अदालत ने सुनाया। दोषियों में पूर्व एसएसपी भूपिंदरजीत सिंह, डीएसपी दविंदर सिंह, इंस्पेक्टर सूबा सिंह, एएसआई गुलबर्ग सिंह और एएसआई रघुबीर सिंह शामिल हैं। अदालत ने उन्हें हत्या, आपराधिक साजिश, रिकॉर्ड से छेड़छाड़ और धोखाधड़ी के आरोपों में दोषी ठहराया था।
पीड़ित पक्ष के वकील सरबजीत सिंह वेरका ने बताया कि सीबीआई ने इस मामले की जांच पूरी करने के बाद 2002 में चार्जशीट दाखिल की थी, जिसमें कई पुलिस अधिकारियों को नामजद किया गया था। हालांकि सुनवाई में देरी के चलते 2010 से 2021 के बीच पांच आरोपियों की मृत्यु हो गई, वहीं मामले से जुड़े 36 गवाहों का भी निधन हो गया। अंततः 28 गवाहों की गवाही के आधार पर अदालत ने फैसला सुनाया।
इस केस की सुनवाई सीबीआई के विशेष न्यायाधीश बलजिंदर सिंह सरा की अदालत में हुई। फैसला उस मुठभेड़ से संबंधित है, जिसमें एक ही गांव रानी वल्लाह के सात युवकों को पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ों में मारा था। सीबीआई की जांच में सामने आया कि युवकों को अवैध हिरासत में लेकर प्रताड़ित किया गया और बाद में मुठभेड़ में मारा हुआ दिखाया गया। शवों का अंतिम संस्कार अज्ञात लावारिस के तौर पर कर दिया गया था।
यह मामला तब प्रकाश में आया जब सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में पंजाब में अज्ञात शवों के दाह संस्कार की जांच का आदेश दिया। इसके बाद सीबीआई ने प्रारंभिक जांच शुरू की और 1999 में एसपीओ शिंदर सिंह की पत्नी नरिंदर कौर के बयान के आधार पर एफआईआर दर्ज की गई। जांच में खुलासा हुआ कि 27 जून 1993 को पुलिस टीम ने सात युवकों को ठेकेदार जोगिंदर सिंह के घर से जबरन उठाया और उन्हें थाने ले जाकर बर्बरतापूर्वक प्रताड़ित किया गया।
सीबीआई के अनुसार 12 जुलाई को पुलिस ने करमूवाला गांव के पास एक फर्जी मुठभेड़ दिखाई, जिसमें मंगल सिंह समेत तीन युवकों को मार गिराया गया। शवों की पहचान पुलिस कर्मियों ने की, पर अंतिम संस्कार लावारिस के रूप में कर दिया गया। बाद में सीएफएसएल जांच में यह साबित हुआ कि कथित मुठभेड़ में मिले खोखे वहां मिले हथियारों से मेल नहीं खाते थे और मृतकों के शरीर पर पाई गई चोटें मुठभेड़ से पूर्व की थीं।
इसके अलावा, सुखदेव सिंह को बाद में वेरोवाल थाने को सौंपा गया था, और अन्य दो युवकों – सरबजीत सिंह और हरविंदर सिंह – को अगवा कर 28 जुलाई 1993 को एक और फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने का दावा किया गया। इस फर्जी मुठभेड़ को सही ठहराने के लिए हथियारों की बरामदगी का झूठा मेमो तैयार कर एक फर्जी एफआईआर दर्ज की गई।
लगभग 32 साल बाद पीड़ित परिवारों को न्याय मिला है। कोर्ट का यह फैसला मानवाधिकार उल्लंघनों के खिलाफ एक अहम कानूनी कदम माना जा रहा है।