आज पर्यावरण असंतुलन मानव जीवन के लिए गंभीर चिंता का विषय बन चुका है। इसी संदर्भ में संवत 1542 कार्तिक वदी अष्टमी को गुरु श्री जाम्भो जी ने बिश्नोई धर्म की स्थापना की और लोगों को 29 नियमों की आचार संहिता दी। यह आचार संहिता न केवल मानव के कल्याण बल्कि प्रकृति और जीव-जंतुओं के संरक्षण का मार्ग भी दिखाती है। बिश्नोई समाज गुरु श्री जाम्भो जी को भगवान मानता है।
गुरु जम्भेश्वर भगवान ने सृष्टि को आकाश, वायु, सूर्य, जल और पृथ्वी के माध्यम से परिभाषित किया। इसी प्रकृति प्रेम की दिशा में “खेजड़ली खड़ाणा” एक ऐतिहासिक घटना है। मारवाड़ के जोधपुर महाराजा ने किले की दीवार निर्माण के लिए चूने को पकाने हेतु लकड़ी की आवश्यकता जताई। खेजड़ली गांव में खेजड़ी वृक्षों की कटाई का आदेश आया, लेकिन स्थानीय बिश्नोई लोगों ने विरोध किया और पेड़ नहीं काटने देने का संकल्प लिया।
सभी आसपास के 84 गांवों के लोग खेजड़ली पहुंचे। इस दौरान अमृतादेवी ने अपनी तीन पुत्रियों सहित खेजड़ी पेड़ को गले लगाकर शहीद होने का साहसिक कदम उठाया। इसके बाद भी कई बिश्नोई पुरुष और महिलाएं पेड़ों की रक्षा में बलिदान दे गए। इस घटना के बाद महाराजा ने पश्चाताप करते हुए पेड़ों की कटाई और शिकार पर रोक लगा दी। संवत 1787 भाद्रपद सुदी दशमी को 363 बिश्नोई शहीदों का यह बलिदान विश्व का पहला सत्याग्रह माना जाता है।
इस बलिदान की स्मृति में खेजड़ली में प्रतिवर्ष शहीद मेला आयोजित किया जाता है। इस मेले में देशभर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। पुरुष सफेद वस्त्र पहनते हैं, जबकि महिलाएं पारंपरिक भेष और भारी गहनों के साथ शामिल होती हैं।
मेले में राजनीतिक और सामाजिक भागीदारी भी प्रमुख रहती है। केंद्रीय मंत्री, राज्य मंत्री, क्षेत्रीय विधायक और देशभर से बिश्नोई व जाट समाज के प्रतिनिधि इस आयोजन में शामिल होते हैं। इस बार भी केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, जयंत चौधरी, मंत्री जोगाराम पटेल, शिव विधायक रविंद्र सिंह भाटी सहित कई नेता उपस्थित रहे।
खेजड़ली महाबलिदान आज भी पर्यावरण संरक्षण और वन्य जीवन के प्रति मानवता के कर्तव्य की याद दिलाता है और बिश्नोई समाज के लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।