हरिद्वार। धर्मनगरी हरिद्वार में हर साल गंगनहर की वार्षिक बंदी स्थानीय लोगों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं होती। जैसे ही गंगा की अविरल धारा को रोकने का काम शुरू होता है, हजारों परिवार घाटों पर उमड़ पड़ते हैं। श्रद्धालुओं और व्यापारियों द्वारा साल भर गंगा में अर्पित किए गए सिक्के, गहने और अन्य सामान इस दौरान नदी की गोद से निकल आते हैं। गुरुवार देर रात से ही लोग नदी की रेत और पत्थरों को खंगालते दिखे।

यह परंपरा कई परिवारों की रोज़ी-रोटी का जरिया भी बन चुकी है। जिन्हें स्थानीय लोग ‘निआरिया’ कहते हैं, वे इस अवधि में गंगा में उतरकर सिक्के, आभूषण और उपयोगी सामान ढूंढते हैं। वर्ष के अधिकांश दिनों में ये लोग घाटों पर फूल, टीका और प्रसाद बेचकर जीवनयापन करते हैं, लेकिन गंगा बंदी के पखवाड़े में यही खोज उनका सहारा बन जाती है।

गुरुवार रात गंगा धारा रोके जाने के बाद कई लोगों को अप्रत्याशित वस्तुएँ भी मिलीं। टेंट डालकर रहने वाले जीवा नामक व्यक्ति ने रेत में दबा गैस सिलिंडर पाया, जबकि एक अन्य संजय को फ्रीज मिला। लोगों का मानना है कि हाल ही में उत्तराखंड में आई बाढ़ और आपदाओं में बहकर ये सामान गंगा तक पहुँचा होगा।

हरकी पैड़ी से लेकर आस-पास के घाटों तक इस दौरान केवल निआरिया परिवारों की भीड़ दिखाई दी। बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक सब लोग रेत और पत्थर खंगालते नज़र आए। किसी को सिक्के मिले तो किसी को छोटे-छोटे आभूषण। स्थानीय रमावती देवी बताती हैं कि पहले अधिक सामान मिलता था, लेकिन अब लोग दान सीधे अन्य जगहों पर करने लगे हैं, जिससे गंगा में पहले जैसी चीज़ें नहीं मिलतीं।

इस बीच, गंगा की धारा सूखने पर एक बार फिर ब्रिटिश हुकूमत के ज़माने की रेलवे लाइन सामने आई। बताया जाता है कि यह लाइन रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज (वर्तमान आईआईटी) से हरिद्वार तक निर्माण सामग्रियों की आपूर्ति के लिए बिछाई गई थी। अंग्रेजों के समय में छोटी बोगियों वाली ट्रेनें बैराज, कैनाल और अन्य विकास कार्यों के लिए इसी मार्ग से सामग्रियाँ ढोया करती थीं। आज भी उसके अवशेष गंगा की रेत में दबे हुए हैं।

गंगा बंदी के इन पंद्रह दिनों में जहाँ एक ओर लोग श्रद्धालुओं की आस्था से जुड़े खजाने की खोज में लगे रहते हैं, वहीं यह नजारा हरिद्वार की उस अनूठी परंपरा को जीवित करता है, जहाँ गंगा केवल आस्था नहीं बल्कि कई परिवारों के जीवन का सहारा भी बनती है।