उत्तराखंड हाईकोर्ट के एक आदेश और उस पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई रोक के बाद भाषा को लेकर न्यायपालिका और प्रशासनिक प्रक्रिया में उपयोग पर बहस फिर तेज हो गई है। यह मामला तब चर्चा में आया जब पंचायत चुनाव से जुड़े एक मामले में एडीएम विवेक राय उत्तराखंड हाईकोर्ट में पेश हुए और उन्होंने अपनी बात हिंदी में रखी। इस पर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने नाराजगी जताते हुए राज्य निर्वाचन आयुक्त को निर्देश दिया कि यह जांच की जाए कि क्या अंग्रेज़ी न जानने वाला अधिकारी अपने कार्य के प्रति सक्षम माना जा सकता है।
इस आदेश के विरुद्ध राज्य के अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, जहां उन्हें राहत मिली। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने हाईकोर्ट के आदेश पर अंतरिम रोक लगाई, जिससे यह स्पष्ट संदेश गया कि भाषा के आधार पर किसी अधिकारी की कार्यक्षमता को नहीं आंका जा सकता।
संविधान क्या कहता है?
भारत जैसे भाषायी विविधता वाले देश में संविधान ने 22 भाषाओं को आठवीं अनुसूची में मान्यता दी है। हिंदी को राजभाषा और अंग्रेज़ी को सह-राजभाषा का दर्जा मिला है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 343 हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित करता है, जबकि अनुच्छेद 348 के अंतर्गत उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही अंग्रेज़ी में होने की बात कही गई है, जब तक कि राष्ट्रपति कोई अन्य निर्देश न दें।
प्रशासनिक कार्यों में, केंद्र और राज्य सरकारें अपनी सुविधा और क्षेत्रीय ज़रूरतों के अनुसार भाषा का निर्धारण कर सकती हैं। हिंदी भाषी राज्य उत्तराखंड में प्रशासनिक कार्यों में हिंदी का प्रयोग पूरी तरह संवैधानिक रूप से वैध और व्यावहारिक है।
अंग्रेज़ी की अनिवार्यता—एक भ्रम?
किसी भी कानून में यह बाध्यता नहीं है कि अधिकारी को अंग्रेज़ी बोलना ही आना चाहिए। संघ और राज्य सेवाओं की परीक्षाओं में भी हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में उत्तर देने की सुविधा उपलब्ध है। सेवा में आने के बाद भी अधिकारी राज्य की राजभाषा में कार्य कर सकते हैं, जब तक उन्हें विशेष रूप से अंग्रेज़ी में कार्य करने के निर्देश न दिए गए हों।
न्यायपालिका में भाषा की स्थिति
उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में कार्यवाही मुख्यतः अंग्रेज़ी में होती है, लेकिन अनुच्छेद 348(2) के तहत राष्ट्रपति की अनुमति से राज्य सरकारें अपने उच्च न्यायालयों में क्षेत्रीय भाषा का प्रयोग कर सकती हैं। निचली अदालतों में तो प्रायः हिंदी या अन्य स्थानीय भाषाओं का प्रयोग सामान्य है।
हिंदी में पक्ष रखना कोई अपराध नहीं
जिस अधिकारी के खिलाफ हाईकोर्ट ने सवाल उठाए, उसका एकमात्र ‘दोष’ यह था कि उसने अदालत में हिंदी में अपनी बात रखी। न तो संविधान और न ही किसी कानून में यह कहा गया है कि अदालत में केवल अंग्रेज़ी में ही बात की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाना इस बात की पुष्टि करता है कि भाषा के आधार पर योग्यता या अयोग्यता निर्धारित करना न केवल अनुचित बल्कि असंवैधानिक भी है।
विशेषज्ञों की राय
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अश्विनी कुमार दुबे का कहना है कि किसी अधिकारी द्वारा हिंदी में संवाद करना कोई गलत बात नहीं है, विशेषकर जब वह एक हिंदी भाषी राज्य में कार्यरत हो। संविधान भी इसके पक्ष में है और सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप इस दिशा में एक सकारात्मक संकेत है कि भारत में भाषा के आधार पर भेदभाव स्वीकार्य नहीं हो सकता।
दक्षता का मापदंड क्या हो?
प्रशासनिक दक्षता को भाषा नहीं, बल्कि कार्यकुशलता, ईमानदारी और जनसेवा की भावना से आंका जाना चाहिए। अंग्रेज़ी का ज्ञान निश्चित रूप से उपयोगी हो सकता है, लेकिन उसकी अनिवार्यता थोपना संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है।
निष्कर्ष
उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश और सुप्रीम कोर्ट की रोक ने एक बार फिर यह स्पष्ट किया है कि भारत में भाषा को लेकर संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। कोई भी अधिकारी, विशेष रूप से हिंदी भाषी राज्यों में, हिंदी में कामकाज या संवाद करता है तो उसे अक्षम नहीं ठहराया जा सकता।
प्रशासन और न्यायपालिका को चाहिए कि वे भाषा नहीं, बल्कि योग्यता और ज़मीनी कार्यकुशलता को प्राथमिकता दें।