वह एक सरकारी महकमे में बड़ा ऑफिसर था। उसके कागजों से, फाइलों से, कलम से, यहां तक कि उसके इशारा करने मात्र से रुपया झड़ता था। चारों तरफ पैसा ही पैसा! उसे इस अकूत पैसे को देख मनी फोबिया हो गया।
और पैसा कमाने की चाहत में उसने सरकारी नौकरी छोड़ खुद सरकार बनने की तिकड़म लड़ानी शुरू की। सिर पर लम्बी-चौड़ी टोपी लगानी शुरू की, जिसमें 2000-2000 के ढेर सारे नोट भर जायें। ऊपर से गले में मफलर लपेटना शुरू किया।
लोगों को भरमाने के लिए अपने एनजीओ के बड़े बड़े विज्ञापन लाखों-करोड़ों रुपया देकर छपवाये। राजनीति में न आये बिना समूची व्यवस्था को बदलने की कस्में खाएं। दिल्ली के ऑटो चालकों से लेकर सुप्रीम कोर्ट के वकीलों तक, पत्रकारों-गीतकारों तक सभी को खूब पट्टी पढ़ाई।
फिर अन्ना हजारे सहित तथाकथित बुद्धिजीवियों को गच्चा देकर दिल्ली का बादशाह बन बैठा। दो कमरों में रहने वाला 45 करोड़ रुपये की लागत से महल की मरम्मत कराके उसमें बैठ गया कट्टर ईमानदार का शोर मचा कर कट्टर बेईमान बन गया और अपने इर्दगिर्द बेईमानों की जमात खड़ी कर ली ताकि बुरे वक्त में वे इसका साथ दे सकें। शराबबंदी, भ्रष्टाचार बन्दी के नारे पलट दिए। दिल्ली वालों की आखों में ऐसी मिर्च झोंकी कि पंजाब में खालिस्तान के पैरोकार भी वाह-वाह कर उठे।
बताइये वह कौन है और कहां है? क्या दुनिया भर को धता बताने वाला न्यायपालिका की आंखों में भी धूल झोकने में कामयाब होगा?
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’