यह है असली हिन्दुत्व!

इन दिनों पूरे देश में अजीब-सा माहौल है। कहीं धर्म संसद का हंगामा है तो कहीं अल्लाह-हू-अकबर का शोर है। लाउडस्पीकर, हिजाब, हलाल का मलाल है तो हनुमान चालीसा सड़कों पर पढ़ने की ज़िद है। ऐसा वातावरण है कि यदि कबीर आज मौज़ूद होते तो उनके यह कहने पर- कांकर पाथर जोरि के ,मस्जिद लई चुनाय। ता उपर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय; सेक्यूलरवादी उन्हें आर.एस.एस. का पिट्ठू घोषित कर देते और यह कहने पर- पाथर पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजूँ पहार। घर की चाकी कोउ न पूजै, जा पीस खाए संसार तो धर्मध्वजा उठाने वाले उन्हें हिन्दू विरोधी बता कर पाकिस्तान जाने की बात कहने लगते। धर्म की व्याख्या भी लोग अपने-अपने हितों के अनुसार करते हैं। कोई धर्म को पंथ से अलग बताता है, कोई अपने धर्म को असली धर्म बता कर बाकी धर्मावलम्बियों को क़ाफ़िर क़रार देता है तो कोई धर्म को अफीम ही बता देता है। मनुस्मृति में कहा गया है- धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। इसका सरल अर्थ है धर्म की रक्षा करने वाले की धर्म रक्षा करता है किन्तु उलझन तो वही है, धर्म है क्या? सम्भवतः सरल अर्थ है- परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।

धर्म की व्याख्या अथवा मीमांसा करने की हमारी क्षमता नहीं। हम सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि इस भ्रामक माहौल में भी महान् आत्मायें धर्माचरण में जीवन गुज़ारती हैं। हमें इसी मुजफ्फरनगर में ऐसी महान् आत्मा का स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त हुआ है जिन्हें मैंने मानवता के साक्षात अवतार के रूप में देखा है। वे थे ग्राम बुपाड़ा निवासी सत्श्री महेन्द्रपाल सिंह जी, जो काफी समय से मुस्लिम बहुल मौहल्ला लद्धावाला में रह रहे थे। बुपाड़ा में जब आश्रम का निर्माण कराया गया तो उनके परम शिष्य इंजीनियर कन्हैयालाल जी ने आश्रम के निर्माता के रूप में गुरु महाराज का नाम लिखने को कहा। आश्रम के निर्माण में बुपाड़ा गांव के दलित राज-मिस्त्री श्रीराम ने बड़ी निष्ठा से काम किया था। गुरु जी ने कहा- मेरा नाम लिखने की क्या सैंस है? नाम तो श्रीराम का लिखा जायेगा जिसने दिन-रात काम किया है! और निर्माता के रूप में श्रीराम का ही नाम लिखा गया। उनके निजधाम सिधारने पर बुपाड़ा आश्रम का नाम ‘मानवता धाम’ लिखा गया।

बात को आगे बढ़ाने से पहिले मैं उनकी लिखा एक नज्म यहां प्रस्तुत कर रहा हूंः
लाशों में वह नहीं है जो दंगाइयों में था
वह शख्स क्या हुआ जो इन भाइयों में था
मज़हब के जुनूं ने कत्ल उसको कर दिया
रिश्ता पवित्र खून का जो दो भाइयों में था
उभरा ग़ज़ल के भेष में, लफ़्ज़ों की शक्ल में
‘महेन्द्र’ अब तक जो दर्द रूह की गहराइयों में था

दरअसल यह नज्म गुरु महाराज ने अक्तूबर 1988 में लिखी थी जब मुजफ्फरनगर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा फूट पड़ा था। सिर्फ दो घटनाओं का उल्लेख करूंगा। रुड़की रोड स्थित कम्बल कारखाने में एक मुस्लिम चौकीदार रात की ड्यूटी पर था जो दंगाइयों की हिंसा का शिकार हो गया। मुस्लिम बहुल बस्ती खालापार के गन्दाकुआं इलाके के नगरपालिका के नलकूप पर एक हिन्दू कर्मचारी दंगे के दौरान भी ड्यूटी देता रहा ताकि पानी की सप्लाई न रुके। उन्मादी भीड़ ने उसकी भी जान ले ली जबकि वह कर्फ्यू पासहोल्डर था और इलाके के बीमार लोगों के लिये दवाइयां तथा छोटे बच्चों के लिये दूध आदि ला कर बांटता था। दर्द भरी यह कविता इसी माहौल को बयां करती है।

उस हैवानियत के दौर में इंजीनियर साहब सुबह-सुबह लुकते-छिपते मेरे पास आये और बोले- गुरु जी ने अभी बुलाया है। मुझे और मेरी गाड़ी को कर्फ्यू पास मिला हुआ था। मैं इंजीनियर साहब को साथ लेकर गुरु महाराज के पास पहुंचा। हुआ यह था कि कर्फ्यू लगने के बाद कई गरीब लोग अपनी रिश्तेदारियों में फंस गए। वे रोज़ कमाने रोज़ खाने वाले लोग थे। आश्रम के भंडारे के लिए काफी आटा, चीनी, आलू गुरु जी ने मंगा रखे थे। गद्दी पर ही लंगर चला दिया। सूखा राशन भी बांटा। गेहूं की कुछ बोरियां रखी हुई थीं। गेहूं पिसवा कर आटा बांटना चाहते थे किन्तु कर्फ्यू के कारण चक्की नहीं चल सकती थी। बोले- कलक्टर साहब से रात को चक्की चलाने की इजाजत दिलाओ। यह कैसे मुमकिन था? लौटते समय मेरे परिचित सेक्टर मजिस्ट्रेट दौरा करते हुवे मिल गए। मैंने समस्या रखी तो कहने लगे- कर्फ्यू लगता ही इस लिये है कि बलवाइयों को आटे-दाल का भाव पता चले। चक्की चली तो कर्फ्यू का क्या मतलब रह गया? आदमी भले थे। बोले रात में चक्की चलेगी तो दूर तक आवाज जायेगी। गुरू जी से कहना दिन में आधे-आधे घंटे के अन्तराल से गेहूं पिसवा लें। ऐसा ही किया गया। इस काम में अम्माजी (गुरु पत्नी विमला जी) का भी ख़ासा सहयोग रहा। गुरु जी ने राशन के अलावा नकद पैसे भी जरूरतमन्दों को दिये थे। गौरतलब है कि जीवन में गद्दी या आश्रम में कभी एक पैसा दान में नहीं लिया। खेती की निजी कमाई जनसेवा में खर्च करते थे। जब तक हाथ-पैर चले खुद खेती की। चौ. महेन्द्र टिकैत के मेरठ आन्दोलन के लिए दो बोरी गेहूं भेजा था।

आज तो सभी पंथों के धर्मगुरु गुरु न रह कर गुरुघंटाल बने हुए हैं तथापि यह बात सभी पर लागू नहीं होती किन्तु अधिकांश की रोजी-रोटी और दबदबा भड़काऊ भाईजान बने रहने से ही चलता है। महेन्द्र गुरु जी पक्के सनातनी हिन्दू थे। हिन्दुत्व की महानताओं और उच्च आदर्शों को अपने जीवन में उतार कर दिखाया। आज भारतीय समाज को उन जैसे सच्चे हिन्दुत्ववादी की नितान्त आवश्यकता है।

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात

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