अशांति, हिंसा फैलाने की साजिश!

पूरा देश यह समझ चुका है कि कृषि कानूनों के बहाने देश में अराजकता और हिंसा भड़काने की साजिश रची गई है ताकि मोदी सरकार को सवालों के घेरे में लेकर उसे पलट दिया जाए।

सारी बेहुदगियों, बदतमीजियों और झूठ के बावजूद जब कांग्रेस ने देखा कि मोदी सरकार को गिराने का कोई मौका नहीं मिल पा रहा है तो उन्होंने ऐसे लोगों के कंधों पर अपनी बंदूक रख दी जो भड़काऊ और उत्तेजक हरकतों से समाज को बरगला सकते हैं।

देश यह भी देख रहा है कि लाल किले पर कौमी झंडे के अपमान और 400 पुलिसजनों के घायल होने के बावजूद पुलिस ने अति संयम से काम लिया। करोड़ों लोगों ने देखा की भीड़ में ट्रैक्टर दौड़ाता युवक खुद अपने ट्रैक्टर के उलटने से दबकर मरा किन्तु झूठी खबर फैलाई गई कि पुलिस ने गोली मारकर उसकी हत्या कर दी। कोशिश यही है कि किसी प्रकार टकराव और हिंसा भड़के और लोग सरकार के विरुद्ध हो जाएं। यह चाल भी नाकामयाब रही तो अब भारतीय जनता पार्टी के लोगों को गांव में न घुसने देने का ऐलान कर दिया गया। जिससे जनता के बीच सीधा टकराव हो जाए। मुजफ्फरनगर तथा शामली के 2 ग्रामों में भाजपा नेताओं के विरूद्ध नारेबाजी और हाथापाई की गई। जाट बाहुल्य सोरम ग्राम में एक तेरहवीं में शोक प्रकट करने गए केंद्रीय राज्य मंत्री संजीव बालियान के साथ अभद्रता का प्रयास किया गया और चंद मिनटों में राष्ट्रीय लोकदल के सैकड़ों लोगों ने जैसे थाने का घेराव किया उससे स्पष्ट है कि ये लोग हरस्थिति में अशांति फैलाने और माहौल के गर्म रखने की तिकड़म में जी-जान से जुटे हैं ताकि वे हिंसा की आग पर सियासत की रोटियां सेंक सकें।

किसी सामाजिक कार्यक्रम में शामिल होना प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। भाकियू और खाप पंचायतों के नेता खुले तौर पर ग्रामों में न आने की धमकी दे रहे हैं। जेवड़ी (रस्सी) से बांधकर पीटने की चेतावनी दी जा रही है, धरना प्रदर्शन में सहयोग न करने वालों पर जुर्माना लगाया जा रहा है। लोकतंत्र की रक्षा के नारे लगाने वाले ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ की नीति पर एक बार फिर चल पड़े हैं।

यह लोग उस युग की याद दिला रहे हैं जब लाठी के बल पर बूथ लूट लिए जाते थे और गांव की शेष बिरादरियों के मतदाता वोट लूट को चुपचाप सहन कर जाते थे। यह दौर ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया। लोगों ने समझ लिया कि एक कौम की चौधराहट से पूरे भारत का भविष्य नहीं बंधा है। हिंसा, दबाव, मुठमर्दी या जातीय चौधराहट से सकल समाज को दबाया नहीं जा सकता। आज फिर से उसी पुराने दौर को वापिस लाने की कोशिश हो रही है। हां, किसी एक कौम को बरगला कर शेष समाज से कुछ समय के लिए दूर जरूर किया जा सकता है। थोड़ा बहुत पैसा व राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है। किंतु लोकतांत्रिक समाज में किसी एक कौम की दादागिरी दिखाने से उस कौम की ही क्षति होती है, और किसी की नहीं।

जाट लैंड कहलाने वाले हरियाणा में आरक्षण के दौरान तोड़फोड़, हिंसा और आगजनी से क्या हासिल हुआ? जनता ने हर बार जाट मुख्यमंत्री चुनने की परंपरा को छोड़ दो-दो बार गैर जाट को मुख्यमंत्री बनाया। आज भी किसान कानूनों का विरोध करने वाले नेता मनोहर लाल खट्टर के मंच को तोड़ने को बड़ा पराक्रम मानकर इसे यूपी में भी दौराहे जाने की धमकी दे रहे हैं। किसी संकीर्ण राजनीति से जातीय हित भी सदा सिद्ध नहीं होते। जातिवादी राजनीति का युग धीरे-धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। लोग समझ चुके हैं कि 36 कौमों को साथ लेकर चलने का जमाना है। सांप्रदायिक तत्वों के सहारे से राजनीति की वैतरणी पार नहीं होने वाली हैं। जातीय तिकड़मों और झूठ के सहारे चलाये गए आंदोलन का सुपरिणाम कभी नहीं निकलता। कृषि आंदोलन का भी यही हश्र होना है।

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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