जब लाल बहादुर शास्त्री ग्राम भैंसी आये !

दो अक्टूबर को देश महात्मा गांधी के जन्मदिन के रूप में मनाता है। अफसोस है कि गांधी जी के विराट व्यक्तित्व की छाया तले देश की एक अन्य विभूति के जन्मदिन को हम दोयम नम्बर जैसा मनाने को विवश हैं। गांधी जयंती पर राष्ट्रपिता को याद करने के बाद लाल बहादुर शास्त्री की याद में भी कुछ शब्द बोले जाने की परंपरा है। शास्त्री जी का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को मुगलसराय में हुआ था। यदि उनका जन्म 2 अक्टूबर से दो-चार दिन आगे पीछे हुआ होता तो उनकी जयंती और भी श्रद्धा व सम्मान से मनती क्योंकि राष्ट्रभक्ति व मातृभूमि की सेवा में शास्त्री जी का योगदान किसी बड़े नेता से कम नहीं था।

हमारे बुजुर्ग बताते हैं कि शास्त्री जी ने मुजफ्फरनगर जनपद के कुछ ग्रामों में रहकर अछूतोद्धार व स्वराज्य प्राप्ति के लिए प्रचार किया। ग्राम बलवा, चरथावल में शास्त्री जी ने प्रवास किया था।

जून 1964 में जब शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने कहा कि महीने में कम से कम एक गांव में अवश्य जाऊंगा और अपने ग्रामीण भाइयों के बीच बैठकर उनके सुख-दुख साझा करूंगा। उस समय बाबू सुमत प्रसाद जैन मुजफ्फरनगर से सांसद थे। वे उन्हें दिल्ली से खतौली के निकटवर्ती ग्राम भैंसी लेकर आये। कन्या पाठशाला के सामने मैदान में शास्त्री जी की सभा रखी गई थी। मैं पिताश्री राजरूप सिंह वर्मा के साथ भैंसी गया था। मुझे इस लिये भी भैंसी पहुंचना था कि मैं तब कांग्रेस सेवा दल का वालंटियर था और वालंटियरों को शास्त्री जी का स्वागत तथा कार्यक्रम की व्यवस्था में सहयोग करना था।

मुझे भैंसी में दिया गया शास्त्री जी का पूरा भाषण याद नहीं है, हां इतना अवश्य याद है कि माइक संभालते ही शास्त्री जी ने कहा था कि मैं आपको खुशखबरी दे रहा हूं कि पाकिस्तान के साथ मैच में भारत जीत गया है। स्मरण नहीं कि मैच हॉकी का था या क्रिकेट का। यह अच्छी तरह याद है कि शास्त्री जी ने मंच पर बैठे सांसद सुमत प्रसाद जैन की ओर इशारा करते हुए कहा था कि जनप्रतिनिधियों को अधिकाधिक समय आम लोगों के बीच बिताना चाहिये। सुमत जी मेरे साथ दिल्ली से यहां 4 घंटों में पहुंचे हैं, अच्छा होता कि यह समय वे जनता के बीच बिताते।

हमारे दल के नायक बिजनौर जनपद के सज्जन थे, (खेद है उनका नाम अब भूल चुका हूं) उन्होंने मेरी तथा डॉ. कालूराम हितैषी की ड्यूटी शास्त्री जी को खाना खिलाने में लगाई। कन्या विद्यालय के बड़े से कमरे में शास्त्री जी के भोजन का प्रबंध था। उनके लिये जमीन पर एक आसन बिछाया गया था। सामने लकड़ी की एक पटरी बिछी थी। हितैषी जी उनके लिए रसोई से भोजन लाये थे, जिसे पहले दिल्ली से आए अधिकारियों ने चैक किया था। थाली में मूंग की दाल और मूली की भुजिया तथा छोटे-छोटे दो फुल्के थे। मैं हाथ का पंखा लेकर शास्त्री जी को हवा करने लगा। मेरी ओर देख कर बोले- नहीं बेटा, इसकी जरूरत नहीं, पंखा नीचे रख दो। हिचकिचाहट के साथ मैंने पंखा रख दिया। भोजन करने में उन्हें मुश्किल से दस मिनट ही लगे होंगे। शास्त्री जी ने उठते हुए मेरी पीठ थपथपाई, कहा- मेहनत से पढ़ना। भाई हितैषी जी को भी आशीर्वाद दिया।

जीवन में कुछ क्षण अविस्मरणीय होते हैं। शास्त्री जी की वह स्नेहपूरित छवि जीवन पर्यन्त याद रहेगी। इस महामानव को कोटिश नमन।

गोविंद वर्मा
संपादक देहात

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