यादों के झरोखे

                   एक शाम क़ैफ़ भोपाली के साथ

मुशायरों की रूह कहे जाने वाले अज़ीम शायर और फिल्म पाकीज़ा जैसी कामयाब फिल्मों के लोकप्रिय गीतों के रचयिता, शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचा कोई शक्स अचानक आपके दरवाज़े पर आ खड़ा हो, तब आपकी सूरतेहाल क्या होगी ? जी हाँ! हमारे साथ ऐसा ही हुआ था।

मुजफ्फरनगर के नाम को अपनी साहित्य सेवा से संपूर्ण भारत में रोशन करने वाले कवि प्रकाश ‘सूना’ जी ने मुझे उन दुर्लभ क्षणों की याद दिलाई जब ख्यातिनामा शायर-गीतकार ‘देहात भवन’ पर अचानक आ गए थे। यह सम्भवत: 90 के दशक का समय था।

क़ैफ़ भोपाली के आकस्मिक आगमन और उनके साथ गुज़री शाम की बात को आगे बढ़ाने से पूर्व मैं मुजफ्फरनगर के एक अज्ञात किन्तु प्रतिभावान युवक का जिक्र ज़रूर करूंगा, जिनकी वजह से देश के उस बड़े शायर के रूबरू होने का सौभाग्य मिला।

वे थे ब्रजपाल सोरमी। मुजफ्फरनगर के ऐतिहासिक ग्राम सोरम के रहने वाले थे। वही सोरम जो सदियों पुरानी सर्वखापपंचायत का मुख्यालय होने के कारण विख्यात है। पिताश्री राजरूप सिंह वर्मा के परिचित सज्जन एक युवक को लेकर आये और बोले यह नौजवान सोरम गांव का है। ज़हीन है, पढ़ा-लिखा है। इसके पिता नहीं हैं। बूढ़ी माता है। गांव में ज़मीन नहीं है। शहर में माँ के साथ रहता है। इसे प्रेस में रख लीजिये, ठीक काम करेगा। उस लड़‌के का नाम ब्रजपाल था। पिताजी ने मालुम किया तो बताया कि लिखने-पढ़‌ने का शौक है लेकिन अभी कहीं काम नहीं किया।

ब्रजपाल को प्रूफ पढ़ने संशोधन और खबरों के संशोधन-संपादन का काम बताया गया। आश्चर्यजनक रूप से उसने एक अनुभवी, पारंगत संपादक के रूप में काम करना शुरू कर दिया। प्रतीत होता था कि वह पहले ही से यह सब काम जानता था। चुपचाप काम करने की आदत थी। किसी से कोई फालतू बात नहीं।

तब न फैक्स थे, न ई-मेल का साधन । कम्प्यूटर-प्रिंटर कुछ नहीं था। हाथ की लिखी खबरों को संशोधित करना पड़ता था या फिर से लिख कर कम्पोजिंग को भेजना होता था।
आप कहेंगे कि बात क़ैफ़ साहब की होनी थी और ले बैठे ब्रजपाल सोरमी का किस्सा। वस्तुत: सोरमी के माध्यम से ही क़ैफ़ भोपाली हमारे यहां आये थे।

एक शाम सोरमी एक सीधे-सादे से दिखने वाले शख्स को लेकर आया। बुजुर्ग थे। मैंने उन्हें प्रणाम किया। सोरमी ने कहा- ‘भाई साहब, ये कैफ, भोपाली साहब हैं।’ क़ैफ़ साहब को कभी देखा नहीं था, देश के नामवर शायर, जिनकी उर्दू साहित्य-जगत में धूम थी। मुशायरों की जान। वे धीमें से मुस्कुराये और मेरी ओर हाथ बढ़ा‌ दिया। एक क्षण मैं सोच नहीं पाया कि देश का नामचीन शायर मेरे सामने खड़ा है। बहुत ही सदा-सा कुर्ता-पायजामा पहिने थे। कोई लकद‌क नहीं। निहायत सादी पोशाक। जैसी पोशाक, वैसा ही सरल व्यक्तित्व !

‘आज शाम को यहीं काव्यगोष्ठी होनी हैं। मैंने 5-7 लोगों को कह दिया है।’ सोरमी ने मुझसे कहा। काव्यगोष्ठी का जिक्र होते ही मैं चकराया। दफ़्तर के नाम मर एक छोटा-सा कमरा, जिसमें एक ओर मेरी मेज पड़ी थी, दूसरे कोने में ब्रजपाल सोरमी की मेज़ थी। 3-4 कुर्सियां और सामने टेलीप्रिंटर रखा था। उसके चलते ही शोर के कारण कमरे में बैठना मुश्किल था। गोष्ठी में क़ैफ़ साहब होंगे, 4-5 लोग और होंगे तो टेलीप्रिंटर के शोर में गोष्ठी कैसे चलेगी। घर के भीतर काव्य गोष्ठी की गुंजाइश नहीं थी।

मैंने सोरमी से कहा- कि सामने मन्दिर में क्यूँ न बैठ लें! क़ैफ़ साहब ने तुरंत स्वीकृति दी। इस बीच प्रकाश सूना जी, इकरामुल हक़ नजम तथा और कुछ साहित्य-प्रेमी आ गए। मन्दिर के फर्श पर दरी बिछा कर महफिल का आगाज़ हुआ। क़ैफ़ साहब बेतक्कलुफ़ होकर जम के बोले। उनकी पुरतरन्नुम गज़‌लों से मंदिर परिसर गूंज उठा। जहाँ आरती, भजन और मन्दिर की घंटी तथा शंख की आवाज़ें गूंजती थीं, वहां आज शेरो-शायरी का दौर दौरा था।

इसी बीच घर से चाय आ गई लेकिन क़ैफ़ साहब की तलब तो दूसरी थी। जब काव्य गोष्ठी के लोग चाय की चुस्कियां ले रहे थे, तभी क़ैफ़ साहब उठे और मन्दिर के पीछे गली में जा कर जेब से पव्वा निकाला, गटागट पी गए। फिर आकर बैठे और महफिल में रंग आ गया।

खूब समाँ बंधा। बाद में क़ैफ़ साहब और ब्रजपाल सोरमी साथ-साथ चले गये।

क़ैफ़ साहब के साथ गुज़ारे उन पलों को याद करना बड़ा अद्‌भुत अनुभव है। इसके लिए मैं भाई सूना जी का आभारी हूँ। साथ ही में अपना कर्तव्य समझता हूँ कि क़ैफ़ साहब के विषय में कुछ लिखूं।

क़ैफ़ अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- आनद-नशा। सीधे-सरल स्वभाव के उस शायर में ये दोनों थीं- घूमना, शराब और शायरी। उनके पुरखे कश्मीर से आकर नवाबों की नगरी भोपाल में बस गए थे। क़ैफ़ साहब का जन्म का नाम ख्वाजा मोहम्मद इदरीस था। उनका जन्म 20 फ़रवरी, 1920 में भोपाल में हुआ।

प्राथमिक शिक्षा के बाद क़ैफ़ साहब का रुझान शेरो-शायरी की ओर हुआ। भोपाल से वे फिल्म नगरी मुम्बई चले गये। 70-80 के दशकों में वे मुशायरों की जान बने रहे किन्तु आत्म प्रचार तथा मंच की गिरोह बन्दी से दूर रहे। एक मुशायरों में उनकी भेंट फिल्म निर्माता कमाल अमरोही से हुई। उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए गीत लिखने को कहा। 1972 में कमाल अमरोही की फिल्म ‘पाकीज़ा’ के गीतों ने भारत-पाकिस्तान में धूम मचा दी। ‘चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो’ को तो लोग सड़‌को पर गुनगु‌नाते चलते थे। क़ैफ़ साहब की कई ग़ज़लें बेहद लोकप्रिय हुईं। मौहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर और जगजीत सिंह जैसे महान् गायकों ने क़ैफ़ साहब की गजलों व गीतो को स्वर दिये। इतना होते हुए भी वे ग्लेमर, तड़‌क-भड़क से दूर रहे। अपने समकालीन साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी और शकील बदायूनीं से अलग हट कर क़ैफ़ साह‌ब का कृतित्व व व्यक्तित्व था।

“देहात” के पाठकों की सेवा में क़ैफ़ साहब के कुछ‌ याद‌गार शे’र व ग़ज़लें नीचे प्रस्तुत हैं। 24 जुलाई, 1991 को क़ैफ़ साहब दुनिया को अलविदा कह गये। उनकी स्मृति में हमारा प्रणाम, और याद‌दिहानी के लिए भाई प्रकाश सूना जी को बहुत-बहुत शुक्रिया!

क़ैफ़ साहब के कुछ मशहूर शे’र:

कौन आएगा यहां कोई न आया होगा
मेरा दरवाज़ा हवाओं ने हिलाया होगा

हम उनको छीन कर लाए हैं कितने दावेदारों से
शफ़क़ से, चाँदनी-रातों से, फूलों से, सितारों से

सलाम उस पर अगर ऐसा कोई फ़नकार हो जाए
सियाही ख़ून बन जाए क़लम तलवार हो जाए

जानलेवा है मुहब्बत का समा आज की रात
शम्मा हो जाएगी जल जल के धुआँ आज की रात

                   ग़ज़ल- 1

जिस्म पर बाक़ी ये सर है क्या करूँ
दस्त-ए-क़ातिल बे-हुनर है क्या करूँ

चाहता हूँ फूँक दूँ इस शहर को
शहर में इन का भी घर है क्या करूँ

वो तो सौ सौ मर्तबा चाहें मुझे
मेरी चाहत में कसर है क्या करूँ

पाँव में ज़ंजीर, काँटे, आबले (छाले)
और फिर हुक्म-ए-सफ़र है क्या करूँ

‘क़ैफ़’ का दिल ‘क़ैफ़’ का दिल है मगर
वो नज़र फिर वो नज़र है क्या करूँ

‘क़ैफ़’ में हूँ एक नूरानी किताब
पढ़ने वाला कम-नज़र है क्या करूँ

                         ग़ज़ल- 2

कुटिया में कौन आएगा इस तीरगी के साथ
अब ये किवाड़ बंद करो ख़ामुशी के साथ

साया है कम खजूर के ऊँचे दरख़्त का
उम्मीद बाँधिए न बड़े आदमी के साथ

चलते हैं बच के शैख़-ओ-बरहमन के साए से
अपना यही अमल है बुरे आदमी के साथ

शाइस्तगान-ए-शहर मुझे ख़्वाह कुछ कहें
सड़कों का हुस्न है मिरी आवारगी के साथ

शा’इर हिकायतें न सुना वस्ल ओ इश्क़ की
इतना बड़ा मज़ाक़ न कर शायरी के साथ

लिखता है ग़म की बात मसर्रत के मूड में
मख़्सूस है ये तर्ज़ फ़क़त ‘क़ैफ़’ ही के साथ

गोविन्द वर्मा

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