प्रेस की आज़ादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम लेकर टी.वी. चैनल दर्शकों के सामने क्या-क्या परोसते हैं, इसपर देश की सर्वोच्च अदालत को भी टिप्पणी करनी पड़ी थी। फिलहाल हम चर्चा करेंगे कि किस प्रकार 45 वर्षों से पूर्वांचल में आतंक और लूट खसोट का साम्राज्य स्थापित करने वाले माफिया का पल-पल का कवरेज कर उसे महिमामंडित करता है। दुर्दान्त बदमाश को साबरमती जेल से लेकर नैनी जेल तक पहुंचाने की प्रक्रिया का सारा दृश्य ऐसे फिल्माया गया मानो किसी महान् जन नायक की शोभायात्रा निकल रही हो। टी.वी. चैनलों ने पहले अतीक की गाड़ी पलटने की खुब अफवाह उड़ाई, फिर उसकी 1300 किलोमीटर की सड़क यात्रा को कवर करने के लिए अपनी सैकड़ों गाड़ियों और रिपोर्टरों को लगा दिया।
संगीन अपराधों के दोषियों को महिमामंडित करने या उन्हें अपनी करतूतों का स्पष्टीकरण देने का सुअवसर प्रदान करने में आजतक जैसे चैनल अग्रणी रहे हैं। दिल्ली दंगे के मुख्य साजिशकर्ता ताहिर हुसैन को कैमरे पर बुलाकर बेगुनाह सिद्ध कराने की कोशिश की गई। सात पुलिसजनों के हत्यारे विकास दुबे की विधवा की बेचारगी टी.वी पर प्रदर्शित की गई। सुशान्त सिंह राजपूत की हत्या में संदिग्ध महिला को अपनी सफाई का मौका दिया गया। जामिया मिल्लिया हिंसा के सूत्रधार सरजिल इमाम को इसी प्रकार के चैनलों ने लोकतंत्र के हीरो के रूप में पेश किया।
प्रश्न है कि 101 मुकदमों में वांछित अतीक की जेल से जेल तक की यात्रा का वी.वी.आई.पी कवरेज करने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने खालिस्तान समर्थक अमृतपाल को पकड़ने की पंजाब पुलिस की कवायद का कवरेज क्यूं नहीं किया? अमृतपाल के पीछे दौड़ने वाले पुलिस दस्ते के पीछे अपनी गाड़ियां क्यों नहीं दौड़ाई ? यह सिर्फ टी.आर.पी बढ़ाने की कवायद नहीं है।
बदमाशों और अपराधियों को हाईलाइट करने वाले चैनलों को यह भी तो बताना चाहिए कि जिस फूलपुर सीट से पं.जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राममनोहर लोहिया, विजयलक्ष्मी पंडित जैसी दिग्गज हस्तियां चुनाव लड़ीं, वहां अतीक जैसे माफिया को किन नेताओं ने संरक्षण दिया। लेकिन वे ऐसा नहीं करेंगे!
गोविंद वर्मा
संपादक ‘देहात’