जातिवाद को सींचने और पुष्पित पल्लवित करने वाले जातिवाद की दु‌धारी तलवार का अवसर के अनुकूल इस्तेमाल कर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को कैसे सिरे चढ़ाते हैं, इसके असंख्य उदाहरण पहले भी थे, आज भी सामने हैं।

जातिवाद के विरुद्ध पूरा जीवन खपाने वाले, किसान मसीहा चौधरी चरणसिंह की जयन्ती पर याद आता है कि घोर जातिवादियों ने कैसे जातिवादी भावनाओं को उभार कर सन् 1971 में उन्हें मुजफ्फरनगर संसदीय सीट से पराजित किया था। यह चौधरी चरणसिंह की व्यक्तिगत पराजय नहीं, अपितु एक विचारधारा की पराजय थी, जो विचारधारा समाज में व्याप्त सांप्रदायिकता, जातिवाद, वर्गभेद, छुआछूत, ऊंच-नीच के भेद‌भाव को तिलांजलि देकर एक सुदृढ, विकसित, समृद्धशाली भारत का निर्माण करना चाहती थी। यह विचारधारा गाँव-देहात के चर्तुमुखी विकास पर आधारित थी।

मुजफ्फरनगर की लोकसभा सीट से चुनाव मैदान में उतरने से बहुत पहले चौधरी चरणसिंह की नीति-रीति और ग्राम्य आधारित अर्थ नीति की परिकल्पना सामने आ चुकी थी। जमींदारी उन्मूलन, चकबंदी, ग्रामों में सामूहिक चरागाह, गांव के बढ़ई, लुहार, कुम्हार, चर्मकार आदि के लिए सामूहिक कार्यशाला की स्थापना, खादी एवं ग्रामोद्योगों को बढ़ावा देने के साथ-साथ कुटीर उद्योग, हस्तशिल्प को प्रोत्साहन, जातिगत आधार पर शिक्षण संस्थाओं के नामकरण का विरोध तथा सामाजिक बंधनों को तोड़ते हुए अन्तरजातीय विवाहों को प्रोत्साहन देने की कल्पना या योजनाओं की राजनीति क्षेत्र में बढ़‌चढ़ कर चर्चा होने लगी थी। नागपुर कांग्रेस सम्मेलन में सहकारी खेती को लेकर चौधरी चरणसिंह की पं जवाहरलाल नेहरू के साथ बहस हो चुकी थी। सार्वजनिक जीवन की शुचिता और प्रशासनिक शुद्धता तथा भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति, स्पष्टवादिता से चौधरी चरणसिंह को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म रहता था।

नतीजतन बड़े कारखानेदार, मोनोपोलिस्ट, घाघ ब्यूरोक्रेट्स उन्हें गरीब, वंचित, उपेक्षित किसानों व ग्रामीण जनता का हमदर्द समझते थे, दूसरी ओर मजदूरों-श्रमिकों की आड़ में राजनीति की रोटियां सेंकने वाले कम्युनिस्ट वामपंथी उन्हें ‘कुलक’ (बड़े किसान) बता कर बदनाम करने की मुहिम चलाते थे। इन सबसे आगे की पंक्ति में जातिवादी धनुर्धर थे, जिनके तरकश में नुकीले, तीक्ष्ण बाण भरे रहते थे।

इन सबके साथ किसान, मजदूर, दस्तकारों, यहां तक कि बुद्धिजीवियों का एक वर्ग भी था, जो महसूस करता था कि चौधरी चरणसिंह की नीतियां समाज एवं देश के लिए कल्याणकारी हैं और राजनीति की शुचिता के लिए चरणसिंह जैसा ईमानदार, सचरित्र, दृढ प्रशासक को नेतृत्व मिलना जरूरी है।

तब इस वातावरण में कांग्रेस नेतृत्व ने मुजफ्फरनगर में चौधरी चरणसिंह को पराजित करने के लिए अपने सभी ब्रह्मास्त्र छोड़ दिये। इनमें सबसे बड़ा हथियार जातिवाद का था। सन् 1971 के चुनाव में कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार खड़ा‌ नहीं किया बल्कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एक स्थानीय नेता को आगे कर दिया। विजयपाल सिंह सीपीआई के समर्पित नेता थे और मंसूरपुर, शामली आदि चीनी मिलों के श्रमिकों में उनकी पहचान थी। बेईमानी या चन्दाखोरी का दाग उन पर कभी नहीं लगा किन्तु चौधरी चरणसिंह के विराट व्यक्तित्व, अनुभव, प्रशासनिक योग्यता के मुकाबले बौने थे, किसी भी योग्यता में चौधरी चरणसिंह के आगे नहीं ठहरते थे किन्तु कांग्रेस ने जातिवाद का बम छोड़कर कामरेड विजयपाल को लोकसभा में पहुंचा दिया। विजयी विजयपाल सिंह को चुनाव में 203193 तथा चौधरी चरणसिंह को 152914 वोट प्राप्त हुए। उनकी 50279 वोटों से पराजय हुई।

किसी ने संसद के केन्द्रीय कक्ष में राजनारायण से विजय पाल सिंह का परिचय कराया तो राजनारायण बोले- ‘अच्छा, तुम्हीं विजयपाल हो जो चौधरी चरणसिंह की वजह से जीते हो !’

वास्तविकता भी यही थी। यदि विजयपाल सिंह के मुकाबले कांग्रेस का कोई अदना सा नेता खड़ा होता तो विजयपाल सिंह का जीतना मुश्किल था। सन् ‌1971 में जीत विजयपाल सिंह की नहीं थी, वह चौधरी चरणसिंह को येन केन प्रकारेण हराने की चाल थी।

कांग्रेस ने चौधरी चरणसिंह को हराने के लिए जातिवाद के तीरों की बौछार की। एक जाति (यानी जाट) के विरुद्ध 35 जातियों को लामबन्द करने के हथकंडे इस्तेमाल किये। तरह तरह की अफवाहें फैला है। तब यह अफवाह जोरों शोरों से फैलाई गई कि वीरेन्द्र वर्मा (जो उत्तरप्रदेश के गृहमंत्री थे) चौधरी साहब को मुजफ्फरनगर ला कर हरवाना चाहते हैं। तत्कालीन जिला अधिकारी के.पी. बहादुर और पुलिस अधीक्षक बलबीर सिंह बेदी उन्हें हरवा देंगे। जबकि वीरेन्द्र वर्मा चौधरी साहब के चुनाव में जी जान से लगे रहे। तत्कालीन डीएम और एसपी ने निष्पक्षता से चुनाव करा कर्त्तव्य का पालन किया।

इससे पूर्व मुजफ्फरनगर के ऊन ग्राम में सन् 1967 में एक दुःखद घटना हो चुकी थी। कांग्रेस के उम्मीद‌वार सलेक चन्द संगल को उत्तेजित भीड़ ने जान से मार डाला था।

आरोप था कि स्व. संगल ने मतदान को प्रभावित करने के लिए पंजाब से कुछ बाहुबली लोगों को बुला रखा था। ये लोग सलेकचंद के साथ इन लोगों ने मतदान केन्द्र पर फायरिंग की तो लोग भड़‌क गये। भीड़ ने उन्हें दौड़ा लिया। फायरिंग करने वाले तो जीप लेकर भाग खड़े हुए लेकिन सलेकचन्द फंस गए। वे जान बचाने को एक मकान में घुस गये। भीड़ ने छत उखाड़ कर अंदर कूदके उन्हें मार डाला। यह एक क्रूर हत्याकांड था जिसकी जमकर भत्सर्ना हुई। घटना का दोष कांग्रेस नेता वीरेन्द्र वर्मा पर मढ़ा‌ गया। जिन 22 लोगों को हत्याकांड में अभियुक्त बनाया गया था, उनमें वीरेन्द्र वर्मा के भाई सुरेन्द्र वर्मा का नाम भी सम्मिलित था, यद्यपि सबूतों के अभाव में वे बरी हो गए थे। तत्कालीन जिला अधिकारी अनुरुद्ध पांडेय ने जो प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी, उसमें स्वष्ट रूप से लिखा गया था कि सलेकचन्द संगल जीप में बद‌माशों को लेकर घूम रहे थे।

यह घटना निश्चितरूप से दुःखद थी। सभ्य समाज में ऐसी घटनाओं का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। ऊन हत्याकांड का चौधरी चरण‌सिंह से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था लेकिन कांग्रेस के खिलाड़ियों ने चुनाव में जातिवाद का वैमनस्य फैलाने को एक खतरनाक हथकंडा अपनाया। जिन नेताओं ने यह कर्मकांड किया, उनसे मैं भलीभांति परिचित था। वे दिवंगत हो चुके हैं, इसलिए नाम नहीं लिख रहा हूँ। एक कांग्रेस के चुनाव विशेषज्ञ थे, दूसरे दिल्ली के एक विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे। सन्‌ 1971 में मतदान से एकदिन पूर्व दिल्ली के झंडेवालान स्थित एक प्रेस में एक बड़े आकार का पोस्टर छपवाया गया।

20 बाय 30 इंच आकार के इस पोस्टर पर मोटे अक्षरों में एक वाक्य लिखा था- ‘सलेक चन्द‌ का लहू पुकार रहा है।’ दिल्ली से आये ये पोस्टर एक ट्रक में भरे हुए थे। रातों-रात इन पोस्टरों को शहर के गली कूंचों की दीवारों तक पहुंचा दिया गया। चुनाव क्षेत्र की दीवारें इन पोस्टरों से पट गई। अगले दिन मतदान होना था। कांग्रेस ने एकनायक को खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया। चौधरी साहब का उस कांड से दूर का भी वास्ता न था।

कांग्रेस की पूरी बटालियन चौधरी चरणसिंह को जाट नेता सिद्ध करने में जुटी थी जबकि उनके निकट सह‌योगियों में विष्णु सरण दुबलिश जैसे क्रान्तिकारी एवं देशभक्त शामिल थे।

मैंने चौधरी साहब की जनसभाओं की रिपोर्टिंग के दौरान पाया कि वे राजनीतिज्ञ से ज्यादा समाज सुधारक थे। ऐसे महान् व्यक्ति को विषम परिस्थिति में देखकर खिन्न व निराश होना स्वाभाविक है किन्तु मैंने यह भी पाया कि परिस्थितियों का दृढ़ता से मुकाबला करते थे। सन्‌‌ 1971 के चुनाव में कांग्रेस ने अपप्रचार व चुनावी हथकंडों से चौधरी साहब की छवि को धूमिल करने का कुप्रयास किया। 1971 के चुनाव में जनसंघ उनके समर्थन में था किन्तु जनसंघ में भी भितरघात था। जनसंघ ने नई मंडी के प्रमुख व्यापारी तथा चौधरी साहब के प्रशंसक रामकिशन खंडेलवाल को चुनाव इंचार्ज बनाया था। खंडेलवाल जी आदि- चौधरी साहब को साथ लेकर नई मंडी (तब नवीन मंडी स्थल नहीं बना था) जनसंपर्क को पहुंचे। मंडी में अपप्रचार के कारण विपरीत स्थिति थी। मंडी के व्यापारी भागचंद‌ जैन एक बड़े व करोड़‌पति व्यापारी होने के बावजूद खुद को श्रमिक हितैषी और वामपंथी मानते थे। जब चौधरी साहब उनकी दुकान पर प‌हुंचे तो जैन साहब बोले- आप को हमारे वोट की क्या जरुरत? वोट तो आप के समर्थकों के लठों से झड़ते हैं! जैन साहब ने उनके समर्थक जाट बिरादरी के लोगों पर तंज किया था। चौधरी साहब बोले कि मैंने जीवन में कभी जातिवाद का समर्थन नहीं किया किसी जाति में पैदा करना तो ईश्वर का काम है। इसमे मेरा कोई दोष नहीं। लाला भागचंद की बात सुनकर चौधरी साहब परिस्थिति को भांप गए और वहीं से वापस लौट आए। जातिवाद तथा अफवाहों का तानाबाना बुनने में सिद्धहस्त कांग्रेस ने अतीत में चौधरी साहब के साथ जो किया, वहीं उन नेताओं के साथ किया जा रहा है जो देश को आगे ले जाने में जुटे हैं।

गोविन्द वर्मा
संपादक 'देहात'
www.dainikdehat.com