16 अक्टूबर: अरुण खण्डेलवाल जी सुसंस्कृत-भद्र पुरुष हैं। नई मंडी (मुजफ्फरनगर) में उनका पैतृक व्यवसाय है जिसे वे व्यापारिक मर्यादाओं का पालन करते हुए करीने के साथ चलाते हैं।
एक सफल व्यावसायी के गुणों के साथ अरुण जी राष्ट्रवादी विचारों के चिन्तक और जिम्मेदार आदर्श नागरिक भी हैं। अपने विचारों को अक्सर फेसबुक के माध्यम से व्यक्त करते रहते हैं। उनके विचार सारवान और प्रेरणादायक होते हैं, जो समाज के लिए हितकारी हैं।
अभी नवरात्रि आरम्भ होने पर अरुण जी ने एक कटु सत्य हमारे सामने प्रस्तुत किया है जिसका सामना धार्मिक अनुष्ठानों अथवा पूजा-पाठ के समय संभवतः हम सभी को करना पड़ता है। अरुण जी ने अपनी पोस्ट के जरिये सचेत किया है कि बाजार में पूजा सामग्री जैसे- रोली-मोली, धूप, कपूर आदि सब कुछ नकली व मिलावटी बिक रहा है अत: सावधानी बरतते हुए पूजा में शुद्ध सामग्री का ही इस्तेमाल करें।

यहाँ मैं जीवन की दो-तीन घटनाओं का जिक्र करना चाहूंगा। मेरा बहुत प्यारा साथी था तुलसी नीलकंठ। कवि, लेखक, पत्रकार-चित्रकार सभी कुछ था लेकिन कुशल, सिद्धहस्त व्यापारी नहीं था। उसने मुझे बताया कि ये सारे काम छोड़ कर अब मैं पूजा में प्रयुक्त होने वाली धूप अपने घर पर ही बनाऊंगा।
कुछ दिनों बाद मेरे पास अत्यंत सुगंधित धूप गिफ्ट करने आया। मैंने कहा- लागत मूल्य लेने पर ही तुमसे लूंगा। धूप प्रज्जवलित की तो पूरा घर महक उठा। तुलसी एक दिन फिर मेरे पास आया और बोला- धूप का काम फेल हो गया। कोई दुकानदार मेरा माल लेने को तैयार ही नहीं है। फिर से कलम घिसने का काम शुरू करूंगा। मैंने धंधा न चलने का कारण पूछा तो तुलसी ने बताया कि मैं चन्दन के चूरे, गाय के शुद्ध घी और गुग्गल से धूप बनाता था। दुकानदारों ने कहा- जले हुए मोबिलआयल और टायर के चूरे से धूपबत्ती बनाओ तब परता आएगा।
वह बोला- 'जिस देवी या देवता को हम पूजते हैं, क्या उसे जले हुए मोबिलआयल और दम घोटने वाले रबर के चूरे का धुआँ सुंघाएं ? यह तो घोर पाप है। मैं यह नहीं कर सका।' तुलसी ने गाजियाबाद में नौकरी ढूंढ़ी। सुबह 4 बजे उठ कर 3-4 कि.मी. दूर पैदल रेलवे स्टेशन जाता, ट्रेन में बैठता, रात 11-12 बजे पैदल घर लौटता। कलम भी घिसता था और चप्पल भी। और एक दिन हम सबको छोड़ कर चला गया। तुलसी के चले जाने की पीड़ा आज फिर हरी हो गयी।
देवी-देवताओं के प्रति दूषित मानसिकता का एक अन्य उदाहरण। हमारे एक परिचित माँ शाकम्भरी के मेले से लौटने के बाद मिले तो बड़े खुश थे। बोले- इस बार माँ की अपार कृपा बरसी। बताया कि बिरजू (उनका भाई) की माँ ने खूब कमाई कराई है। मैया पर चढ़ाया जाने वाला छतर 21 रुपये वाला 51 रुपये में और 51 वाला 101 रुपये में बिका खूब कमाई हुई। यह व्यापार है या ठग विद्या ?
मुजफ्फरनगर में यूनानी व आयुर्वेदिक औषधियों के एक बड़े व्यापारी हैं। हमने एक प्रसिद्ध ब्रांड का गाय का घी उसने खरीदना चाहा तो वे बोले- इस ब्रांड का घी तो अब मंगाते नहीं। लोग खाने के इस्तेमाल के अलावा इसे दिया-बत्ती और हवन आदि में प्रयोग करते थे। हमें शक हुआ तो मंगाना बंद कर दिया है।
उदाहरण तो बहुत हैं। लोग हवन सामग्री के नाम पर भूसा और कूड़ा कर्कट तक बेचने लगे हैं। प्राणप्रतिष्ठा के पश्चात तो मूर्ति जीवंत हो जाती है। चन्दन के नाम से किस वस्तु का टीका मूर्ति पर लगाया जाता है? भोग प्रसाद में क्या अर्पित करते हैं?
इसके लिये दोषी कौन है? निश्चित रूप से चर्च का पादरी और मस्जिद का इमाम तो दोषी नही है।
गोविन्द वर्मा