28,अगस्त, 2014 को कर्नाटक के कोप्पल जिले के मारकुम्बा ग्राम में दलितों की बस्ती के मकानों पर हमला, आग लगाने और महिलाओ को बेइज्जत करने वाले 98 लोगों को जिला एवं सत्र न्यायधीश चन्द्रशेखर ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई। प्रत्येक पर 5-5 हजार रुपये जुर्माना भी लगाया।

न्यायधीश ने 171 पृष्ठों के फैसले में कहा- 'सामाजिक आर्थिक स्थिति सुधारने के विभिन्न प्रयासों के बावजूद दलित समुदाय अभी भी दबा-कुचला ही है। आरोपियों के साथ किसी तरह की नर्मी बरतना न्याय का मखौल होगा। इस मामले से जुड़े साक्ष्यों पर गौर करने के बाद मुझे कोई पहलू ऐसा नहीं दिखा कि आरोपियों को बख्शा जाए। पीड़ित पुरुषों व महिलाओं पर पत्थरो, लाठी डंड़ों से हमला किया गया। यही नहीं, आरोपियों ने महिलाओं का शीलहरण तक किया।'

न्यायधीश चन्द्रशेखर का यह ऐतिहासिक निर्णय समाज में व्याप्त अत्याचारों की कुत्सित प्रवृत्ति और सदियों से चली आ रही घृणात्मक मानसिकता को उजागर करता हैं। निर्णय बताता है कि 76 की आजादी के बाद भी समाज, विशेषकर कथित उच्च हिन्दू समाज मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं हो पाया है।

आये दिनों दलित समुदाय के लोगों के साथ अत्याचार, अपमान, दुर्व्यवहार के समाचार आते हैं जो कथित उच्च वर्ग की दुष्प्रवृत्ति को उजागर करते है। खुद को श्रेष्ठ तथा दूसरी जाति या समाज के दबे-कुचले व्यक्ति को हिकारत की दृष्टि से देखना एक आदत है। खुद दलितों में भी यह वर्ग, जाति भेद समाया हुआ है। कुछ वर्ष पूर्व मुजफ्फरनगर के पुरकाजी सुरक्षित क्षेत्र से वाल्मीकि जाति का एक व्यक्ति विधानसभा चुनाव में उतरा। हमने कई जाटव समाज के लोगों के मुंह से सुना कि अमुक व्यक्ति वाल्मीकि (भंगी) है, उसे क्यूं वोट देंगे? मुजफ्फरनगर ग़ाज़ीवाला पुलिया के पश्चिम में वाल्मीकि समुदाय की बस्ती है। पूर्व में नाले के पास जाटव समुदाय की बस्ती है। इस समुदाय के लोग वाल्मीकि बस्ती से गुजरना भी गवारा नहीं करते।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सामाजिक समरसता पर बल देता है। संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत वाल्मीकि व रविदास जयंती को एक साथ मिल कर मनाने की बात कहते हैं। उन्होंने कहा कि महर्षि वाल्मीकि राम का गुणगान न करते तो राम को कौन जानता? अभी कुछ दिन पूर्व मुजफ्फरनगर में वाल्मीकि जयंती की शोभायात्रा निकली। यात्रा में शायद ही अपवाद स्वरूप कोई सवर्ण जाति का हिन्दू शरीक हुआ हो। हाँ, वाल्मीकि जयंती पर फेसबुक में महर्षि के चित्र के साथ अपनी फोटो डालने का तांता लगा रहा।

हम मीराबाई के भजनों को खूब गाते, गुनगुनाते हैं। उन्हें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण भक्त मान कर श्र‌द्धावनत होते हैं किन्तु मीरा के गुरु, पथप्रदर्शक सन्त रविदास जी को क्यूं भूल जाते हैं? इस प्रश्न का उत्तर मुझे आजतक नहीं मिल सका।

हम इतना भी बर्दाश्त नहीं कर सकते कि कोई दलित एक ही मेज पर थाली रख हमारे सामने खाना खा ले। यह भी बर्दाश्त नहीं कि दलित दूल्हा घुड़‌सवारी कर ले।

राजनीति के लिए नहीं, राष्ट्र एवं समाज हित में यह वर्ग भेद मिटना जरूरी है। यह सामाजिक कोढ़ खत्म होना आवश्यक है। न्यायधीश चन्द्रशेखर ने अपने कर्तव्य का पालन कर सकल समाज को जागृत करने का सद्प्रयास किया है।

दलित उत्पीड़न की बात कहें तो पूरा भारतीय इतिहास इससे भरा पड़ा है। यह राष्ट्रीय शर्मिन्दी का विषय है। दलित उत्पीड़न की कितनी घटनाओं को गिनाएं ? कुछ मामले सामने आये हैं।

25-10-2022 को कानपुर के थाना वुधूनी के ग्राम रमईपुर के दलित युवक राजेन्दर को पुलिस ने चोरी के संदेह में पहले गांव में बुरी तरह पीटा। बाद में थाना ले जाकर पीट-पीटकर मार डाला। मृतक के भाई पर दर्ज कर दिया हत्या का फर्जी मुकदमा ।

7 मार्च, 2022 इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर गुरसहायगंज (कन्नौज) के बहुजन समाज पार्टी के नेता अनुपम दुबे, आशीष पारिया, अमित, रज्जू, खालिद, संजीव पारिया, अवधेश दुबे ने झांसा देकर दलित महिला से 14 अप्रैल, 2015 को सामूहिक दुष्कर्म किया। महिला न्याय के लिए भटकती रही। पति की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई।

16 मार्च, 2024 अशोक नगर (मध्यप्रदेश): दलित लड़‌के पर छेड़छाड़ के आरोप में उसके बूढ़े मां-बाप को खंभे से बांध कर पीटा गया। जूतों की माला पहनाई।

4 मई 2024 प्रयागराज: इलाहाबाद ‌हाईकोर्ट के जस्टिस विक्रम चौहान ने बलिया निवासी मिंटू की याचिका रद्द कर दी। फैसला दिया कि दलित को सार्वजनिक रूप से धमकाने या गाली देने अथवा जातिगत संबोधन करने पर ही एससी/एसटी एक्ट की धाटर 3 (1)/ आर लागू हो सकती है। यह मानसिकता तो न्याय ‌करने वालों की है। कोई जज साहब से पूछे कि क्या घर के भीतर किसी दलित को जातिवादी शब्द कहना अपराध नहीं? सार्वजनिक रूप से दलित को गरियाना ही एससी/एसटी एक्ट में आएगा? यह कैसा तर्क, कैसा न्याय है?

अभी मुजफ्फरनगर के भैंसी ग्राम में हिन्दुओं के शमशान में एक वाल्मीकि के शवदाह पर खूब हंगामा कटा था। प्रधान जी व उनके सह‌योगी कानून के लपेटे में आ गये गए। प्रधान ने भी रपट लिखाई है। 21वीं सदी में यह सब चल रहा है क्यूंकि हम प्रगतिशील हैं?

एक प्रश्न अपने मीडिया कर्मी भाइयों से है। क्या वे माफियाओं, उनके संरक्षकों, जातिभेद, सांप्रदायिकता बढ़ाने वालों, परिवारवादी, वंशवादी नेताओं को ही तरजीह देते रहेंगे? जब कोई माफिया, गैंगेस्टर या अन्य समाज विरोधी सामने आता है तो उसे अखबारों में, चैनलों पर खूब दिखाया जाता है। खूब महिमामंडन, प्रचार होता है। न्यायधीश चन्द्रशेखर के फैसले का प्रचार राष्ट्रीय मीडिया ने क्यूं नहीं किया? क्या ये सभी किसी के बंधक है? यह कर्नाटक को ही नहीं समग्र राष्ट्र को प्रभावित करने वाला फैसला है। इसका भरपूर प्रचार होना चाहिए था ताकि दलितों पर कहर बरपाने वालों में कानून की ताकत का भय व्याप्त हो। इस नेक काम में मीडिया 100 फीसदी नाकाम हो गया।

गोविन्द वर्मा