14 नवंबर : सर्वोच्च न्यायालय की सख्त हिदायत के बाद भी पूरे भारत में दीवाली पर जमकर आतिशबाज़ी हुई। अरबों रुपये मूल्य के पटाखे और बम आदि फूंके गए। अनुमान लगाया गया कि धनतेरस पर हिन्दू समाज के लोगों ने 30,000 रुपये कीमत का 42 टन सोना खरीदा है। सोना या स्वर्ण आभूषणों में चाहे कुछ खोट भी हो, उनकी वक्त गुज़रने के बाद कीमत बढ़ती ही है, लेकिन चन्द मिनटों के आँखों के सुख (जो वास्तव में आंखों की ऐयाशी है) के लिए अरबों रुपये मूल्य के पटाखे-फुलझड़ी-बम फूंक देना हिन्दू समाज की जहालत और महामूर्खता की निशानी है।

इस दीपावली को कितने करोड़ रुपये मूल्य के पटाखे फूंके गए, इसका तख़मीना अभी तक सामने नहीं आया है, लेकिन टी.वी. चैनलों व अख़बारों के माध्यम से ज्ञात होता है कि देश भर में दीवाली पर आतिशबाज़ी के कारण अनेक दुर्घटनायें हुईं, अग्निकांड हुए और अनेक मौतें हुईं। वास्तविकता यह है कि आतिशबाज़ी हिन्दू समाज का कोढ़ है। जहालत की इन्तिहा यह है कि आज दीपावली के तीसरे दिन, जब ये पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं, भरी दोपहरी में भी पटाखों की आवाजें सुनी जा रही हैं।

आतिशबाज़ी नोटों में आग लगाने का एक तरीका है, भले ही ये नोट काली कमाई के हों! दिन के उजाले में बम फोड़ने वाले हिन्दू निर्लज्जता के साथ समाज को मुंह चिढ़ाते हुए कहते हैं कि देखो, हमने कितना पैसा कमाया है, जिसे फूंकने की हिम्मत सिर्फ हमी में है। ये वे लोग हैं जो हज़ारों रुपये आतिशबाज़ी पर फूंक देते हैं, लेकिन किसी गरीब की हथेली पर दो टके भी नहीं रख सकते। भारत में इस्लामिक हमलावरों के साथ बारूद का प्रचलन हुआ था। प्राचीन भारत में बारूद व आतिशबाज़ी के सामान बनाने का हुतर मुस्लिम तीरगरों के पास ही था। इन्हीं के बल पर देश भर में सैकड़ों अवैध पटाखा फैक्ट्रियां चल रही हैं। पहले शब-ए-बारात पर मुस्लिम समाज रातभर आतिशबाज़ी करता था, पटाखे छोड़ता था। मुस्लिम संगठनों व मौलवियों ने आतिशबाज़ी को मुज़िर (त्याग्य) घोषित कर फतवे निकाले तो मुसलमानों ने फौरन इसका त्याग कर दिया और आतिशबाज़ी को हिन्दू समाज ने खुशी-खुशी अपना लिया। हिन्दू समाज की मूर्खता को देख अब तो चीन भी करोड़ों-अरबों रुपये के पटाखे भारत को बेचता है।

यह उस देश की हालत है जिसके पुरखे दीपावली पर शुद्ध देसी तेल व शुद्ध घी के दिये जलाकर व हवन की पवित्र आहुतियां देकर वातावरण को शुद्ध रखते थे। क्या हिन्दू संगठनों को इस अधःपतन पर कुछ नहीं करना चाहिए?

गोविन्द वर्मा
संपादक 'देहात'