हम उन सभी बंधुवों को हार्दिक धन्यवाद देना चाहते हैं जिन्होंने पराक्रमी राष्ट्रभक्त, दूरदृष्टा एवं भारत के लोकप्रिय, प्रजावत्सल शासक सम्राट मिहिरभोज को उनकी जयन्ती पर स्मरण कर श्रद्धासुमन अर्पित किए। अपने पूर्वजों की याद को चिरस्थायी बनाये रखना जाग्रत समाज की निशानी है अतः वे सभी सज्जन बधाई के पात्र हैं जिन्होंने देश के महान्‌ शासक और परम देशभक्त मिहिर भोज को हजारों वर्षों बाद भी याद रखा।

मिहिर भोज अथवा प्रथम भोज, गुर्जर प्रतिहार राजवंश के राजा थे, जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी हिस्से में लगभग 49 वर्षों तक शासन किया। इनकी राजधानी कन्नौज (वर्तमान में उत्तर प्रदेश में) थी। इनके राज्य का विस्तार नर्मदा के उत्तर में और हिमालय की तराई तक, पूर्व में वर्तमान बंगाल की सीमा तक माना जाता है।

भोज प्रतिहार वंश के सबसे महान शासक थे और अरब आक्रमणों को रोकने में इनकी प्रमुख भूमिका रही थी। स्वयं एक अरब इतिहासकार के मुताबिक़ इनकी अश्वसेना उस समय की सर्वाधिक प्रबल सेना थी। इनके पिता रामभद्र थे। मिहिर भोज काल के सिक्कों पर आदिवाराह का चिह्न (छवि) मिलता है, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि ये विष्णु के उपासक थे।

8वीं शताब्दी की शुरुआत में, अरबों ने सिंध पर कब्ज़ा करने के लिए लगातार लड़ाई लड़ी। सिंध पर शासन करने वाले इमरान इन्न-मूसा ने अरब शासन को आस-पास के इलाकों में फैलाने की कोशिश की किन्तु मिहिर भोज ने सिंध के किले से उन्हें भगा दिया और 833-842 ई. के बीच अरबों को कच्छ से बाहर खदेड़ दिया। मिहिर भोज और इमरान इन्न-मूसा की सेनाओं के बीच प्रमुख संघर्ष हुआ जिसमे मूसा को मिहिर भोज ने कड़ी शिकस्त दी। दसवीं शताब्दी के फ़ारसी भौगोलिक पाठ हुदुद-उल-आलम में कहा गया है कि भारत के अधिकांश राजाओं ने शक्तिशाली कन्नौज की सर्वोच्चता स्वीकार की थी। विदेशी हमलावर अरबों के छक्के छुड़ाने वाले शूरवीर सम्राट मिहिर भोज के पराक्रम से भयभीत अरबों ने 300 वर्षों तक सिंध की ओर मुँह उठा कर भी नहीं देखा।

अरब के खलीफा मौतसिम वासिक, मुत्वक्कल, मुन्तशिर, मौतमिदादी सम्राट मिहिरभोज के सबसे बड़े शत्रु थे। अरबों ने हमले के कई प्रयास किए लेकिन वे मिहिर भोज की विशाल सेना के सामने टिक नहीं सके। उनकी सेना हर हर महादेव और जय महाकाल की ललकार के साथ रणक्षेत्र में शत्रुओं पर कहर बरपा देती थी। कभी रणक्षेत्र में भिनमाल, कभी हकड़ा नदी का किनारा, कभी भड़ौच और वल्लभी नगर तक अरब हमलावरों के साथ युद्ध होता रहता था।

सम्राट मिहिर भोज के राज्य का विस्तार वर्तमान मुल्तान से लेकर बंगाल तक और कश्मीर से लेकर कर्नाटक तक फैला हुआ था। उनके राज्य की सीमाओं के अंतर्गत वर्तमान भारत के हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात और ओडिशा आते हैं।

स्कंद पुराण के प्रभास खंड में भी सम्राट मिहिर भोज की वीरता, शौर्य और पराक्रम के बारे में विस्तार से वर्णन है। कश्मीर के राज्य कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक राज तरंगिणी में सम्राट मिहिर भोज का उल्लेख किया है। 915 ईस्वी में भारत भ्रमण पर आए बगदाद के इतिहासकार अल मसूदी ने भी उनके राज्य की सीमा, सेना और व्यवस्था का वर्णन किया है। इसके अलावा मध्यकाल और आधुनिक काल के ऐसे बहुत से इतिहासकार है जिन्होंने सम्राट मिहिर भोज के बारे में लिखा है।

मिहिर भोज ने काबुल के राजा ललिया शाही को तुर्किस्तान के आक्रमण से बचाया था। दूसरी ओर नेपाल के राजा राघवदेव को तिब्बत के आक्रमणों से बचाया था। मिहिर भोज के काल में जनता सुखी थी। अपराधियों को कड़ी सजा मिलती थी और सभी के साथ न्याय होता था। व्यापार और कृषि को बढ़ावा दिया जाता था। राजधानी कन्नौज में 7 किले और दस हजार मंदिर थे।

जब सम्राट मिहिर भोज को आक्रमणकारी अरब खलीफाओं की कुटिलता का पता चला तो उन्होंने भारत के कई राजाओं से संपर्क कर आग्रह किया कि सब मिल कर विदेशी हमलावरों को देश से खदेड़ें। कुछ नरेशों ने उनके प्रस्ताव को स्वीकारा तो कुछ ने विदेशी आक्रांताओं से भिड़ना स्वीकार नहीं किया। सम्राट मिहिर भोज बुद्धिमान, दूरदृष्टा शासक थे। उन्होंने अनुमान लगा लिया कि अरबों से युद्ध होने पर ये देशद्रोही राजा विदेशी हमलावरों का साथ देंगे या उनके प्रति उदासीनता बरतेंगे अतः उन्होंने निश्चय किया कि पहले इन गद्दार राजाओं को ही पराजित किया जाये और अपनी पैदल, अश्व तथा गज सेना को सुदृढ़ किया जाये। उन्होंने अपनी सेना को सुदृढ़ किया और अरबों के साथ युद्ध में उन्हें बुरी तरह पराजित कर सिंध से खदेड़ दिया।

मिहिर भोज ने बंगाल के राजा देवपाल के पुत्र नारायण लाल को परास्त कर उत्तरी बंगाल को अपने साम्राज्य में मिला लिया। दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष को पराजित कर दिया था। सिन्ध के अरब शासक इमरान बिन मूसा को पराजित करके सिन्ध को अपने साम्राज्य में मिला लिया।

आज भी विदेशी शक्तियां और धर्मांध देशों के शासक भारत पर नजरें गड़ाये हुवे हैं। सत्तालोलुप गद्दारों का उन्हें प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग मिल रहा है। ये देशद्रोही कुर्सी की खातिर राष्ट्रवादी शक्तियों पर निरंतर प्रहार करते हैं। चीनी वामपंथियों व पाकिस्तानी कठमुल्लों से तो इनकी सांठगांठ थी ही, अब पता चला कि हाल ही में बांग्लादेश के तख्ता पलट में भी धर्मांध गुट से इनकी सांठगांठ है। यही कारण है कि जमात-ए-इस्लामी के कठपुतली कार्यवाह प्रधानमंत्री डॉ. मौहम्मद यूनुस जैसा चिरकुट भारत को आंख दिखाने लगा है।

ऐसी विषम परिस्थितियों में सम्राट मिहिर भोज जैसे उत्कृष्ट राष्ट्रभक्त, शूरवीर की याद आती है। वर्तमान परिस्थितियां पुकार-पुकार कर कहती हैं कि देश का हर देशभक्त नागरिक जातिभेद के बंधनों को तोड़कर सम्राट मिहिर भोज को अपना पुरखा स्वीकार करे और देश की संस्कृति, सम्मान, गौरव, सम्प्रभुता की रक्षा के लिए खुद को तैयार करे।

यह देख कर अपार दुःख-पीड़ा होती हैं कि महान राष्ट्रभक्त को केवल गुर्जर समाज के चुनिंदे लोग ही याद करते है जबकि उनकी जयंती को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाना चाहिए।

सम्राट मिहिर भोज की जाति को लेकर जो विवाद चल रहा है, लेकिन सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, अग्निवंशी, ऋषिवंशी, नागवंशी, भौमवंशी आदि वंशों में बंटा हुआ है छत्रिय वश। जहां तक गुर्जर समुदाय की बात है वे सभी सूर्यवंशी हैं। भारत में गुर्जर, जाट, पटेल, पाटिदार, मीणा, राजपूत, चौहान, प्रतिहार, सोलंकी, पाल, चंदेल, मराठा, चालुक्य, तोमर आदि सभी छत्रिय वंश में सम्बन्ध रखते हैं।

आज देश की जो परिस्थितियां हैं उसमें हर राष्ट्रवादी भारतीय को वीर शिरोमणि सम्राट मिहिर भोज को सच्चे हृदय से अपना पुरखा, अपना पूर्वज स्वीकार करना होगा क्यूं कि वे सचमुच में ही हमारे पुरखे थे। इसमें जाति, वंश, कुल, गोत्र का भेद कुछ अर्थ नहीं रखता।

मैंने अपने लेख में पहले भी सुझाव दिया था कि खुद को राष्ट्रवादी मानने वाला हर भारतीय अपने घर, घेर या बैठक में सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा या चित्र अवश्य लगाए। यह एक पुनीत प्रेरणादायक कार्य है। आइये हम अपने पूर्वज मिहिर भोज को उनकी जयंती पर नमन करें।

गोविन्द वर्मा