26 अक्टूबर: समाचार है कि उद्यान विभाग पानी के गिरते स्तर को रोकने के उद्देश्य से मुज़फ्फरनगर में 1520 हैक्टेयर क्षेत्र में ‘ड्रिप सिंचाई’ व्यवस्था लागू करेगा। इसके लिए सरकार 90 प्रतिशत अनुदान किसान को देगी। एक हैक्टेयर भूमि पर इस परियोजना की लागत एक लाख 46 हजार 625 रुपये आएगी। खेत में पानी के पाइप बिछाने व संबंधित उपकरण लगाने का काम गुजरात की फर्म जी.एस.के. इंडस्ट्रीज को सौंपा गया है। उद्यान विभाग की सूचना के अनुसार इस योजना को अपने खेतों में लागू करने के लिए मात्र 249 किसानों ने आवेदन किया है।

पहले यह समझते हैं कि ड्रिप प्रणाली है क्या? दरअसल यह प्रणाली इस्राइल ने विकसित की है। इस्राइल के कुल 22145 किलोमीटर क्षेत्र का 60 प्रतिशत रेगिस्तान या रेतीला है। वहां पानी की बड़ी किल्लत है। 250 किमी की मुख्य पाइप लाइन के जरिये समुद्री पानी से नमक निकालने के बाद जल वितरण केन्द्रों के द्वारा घरों व खेतों में पहुंचाया जाता है।

इस्राइल में खेती की जमीन व पानी की कमी के कारण कृषि की नए तकनीक ईजाद हुई हैं। वहां पानी की एक-एक बूंद कीमती है अतः पौधों को एक-एक बूंद पानी से सींचा जाता है। फव्वारों के जरिये जितना जरूरी है, उतना पानी फसल पर छिड़का जाता है जिससे पानी ज़ाया (बेकार) न हो सकें।

सन् 1953 में जब मुम्बई में इस्राइल का कॉन्सुलेट स्थापित हुआ था, इस्राइल के कृषि वैज्ञानिकों की टीम भारत आई थी। राजस्थान के दौरे के बाद तत्कालीन नेहरू सरकार को सलाह दी थी कि वहां (राजस्थान में) ड्रिप व फाउंट्रेन इर्रीगेशन सिस्टम लागू किया जाए जिसके लिए इस्राइल ने तकनीकी सहायता व जानकारी उपलब्ध कराने की पेशकश की थी। इस्राइली वैज्ञानिकों ने कहा था कि उनकी तकनीक अपनाने से राजस्थान खट्टे फलों की भरमार कर देगा। भारत की आंतरिक पूर्ति के बाद भी फलों का इतना उत्पादन होगा कि उनका निर्यात किया जा सकेगा। किन्तु नेहरू सरकार ने इस्राइल का यह अति महत्वकांक्षी प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। क्यों कर दिया, अब इस पर चर्चा करना फिजूल है।

किसानों की आय दुगनी करने के लक्ष्य में सिंचाई, जल व भू-प्रबंधन पर शासन का ध्यान है। प्रश्न है कि क्या किसान इसमें सहयोग करेंगे? पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को प्रगतिशील कहा जाता है। इस वैज्ञानिक युग में भी किसान जल आपूर्ति के लिए पानी की टंकी की स्थापना का विरोध करते हैं, लेकिन समरसेविल घड़ल्ले से लगाकर खूब पानी बहाते हैं। गोवंश संरक्षण केन्द्र की स्थापना के विरुद्ध हड़ताल करते हैं, खेतों से गुजरने वाले बिजली टावरों की स्थापना तथा सड़कें, बाईपास बनाने का विरोध करते हैं। क्या वे कृषि की नई तकनीकों को अपना सकेंगे?

मुज़फ्फरनगर में 1019 ग्राम हैं। जो किसान प्रधानमंत्री ‘सम्मान निधि’ प्राप्त करते हैं उनकी संख्या 2 लाख 39 हजार है और इनमें से मात्र 249 किसानों ने ही ड्रिप सिंचाई व्यवस्था के लिए आवेदन किया है। यह निराशाजनक स्थिति है। कभी मुज़फ्फरनगर को दोआबा कहा जाता था यानी गंगा व यमुना के बीच का इलाका। भू-जल का सर्वाधिक दोहन तो किसानों ने ही किया है। पानी के सदुपयोग, तालाबों व जल संचयन के संरक्षण तथा रेनवाटर हार्वेस्टिंग की ओर किसानों का ध्यान नहीं। फसल-चक्र व कम पानी से उत्पन्न होने वाली फसलों को नहीं अपनाते। जल-पुरुष कहे जाने वाले राजेन्द्र सिंह का जलूस इसीलिए निकाल दिया कि उन्होंने गन्ने की जगह दूसरी फसलें उगाने की सलाह दी थी क्योंकि गन्ने की खेती में सर्वाधिक पानी की जरूरत होती है। गन्ने में तो इनके प्राण बसते हैं, ये क्यों दूसरी फसलें उपजाने लगे?

यह हाल सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश का नहीं, खेती में अग्रणी कहलाने वाले पंजाब की भी यही स्थिति है। यह निश्चित है कि किसान को परम्परागत खेती छोड़ कर समय के अनुकूल, आवश्यकतानुसार कृषि प्रणाली अपनानी ही पड़ेगी।

गोविन्द वर्मा
संपादक 'देहात'