जब कश्मीर घाटी के लोग लोकतंत्र का पर्व मनाने में जुटे थे, लोकसभा के चुनावी माहौल के बीच शोपियां के हीरपोरा गांव से एक दिल दहलाने वाली मनहूस खबर आई। हीरपोरा के सरपंच एजाज़ अहमद शेख अपने मुगल रोड़ स्थित मकान पर बैठे हुए थे कि बाइकसवार दो आतंकियों ने घर में घुस कर उन पर अंधाधुंध फायरिंग कर दी। खून से लथपथ शेख को गांव वाले अस्पताल ले गये किन्तु डाक्टरों उन्हें मृत घोषित कर दिया। यह दुःखदायी घटना 18 मई, 2024 की रात की है। घर पर अब एजाज़ की बूढ़ी माँ, बेवा और दो छोटे बच्चे हैं, जिनका रो-रो कर बुरा हाल है। सरपंच की हत्या से हीरपोरा में दुःख, शोक और रोष की लहर है। रविवार को शेख के जनाज़े में उमड़ा जनसैलाब दर्शाता है कि आतंकियों की काली करतूत में शोपियां का जनमानस कितना उदास और पीड़ित है।
एजाज़ अहमद शेख सकारात्मक सोच का अघोषित सामाजिक लड़ाका था। अनुच्छेद 370 का ख़ात्मा होने के बाद उसने लोगों से, खासकर नौजवानों से अपील की कि वे आतंकियों-अलगाववादियो के चक्कर में न पड़ें। घर-घर जा कर पत्थरबाज नौजवानों को समझाया कि हिंसा, तोड़फोड़ का रास्ता छोड़ कर पढ़ने-लिखने और रोजगार की ओर ध्यान दें तथा घाटी के विकास के लिए मुख्य राष्ट्रीय धारा में शामिल हों। शेख ने दर्जनों बार सामने आकर साहसपूर्वक कहा कि अलगाववादी 500-500 रुपये देकर नौजवानों को भटका रहे हैं। एजाज़ अहमद शेख की इस रचनात्मक सोच की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से प्रशंसा की थी।
चुनाव के माहौल में लोकतंत्र के एक बहादुर सिपाही की हत्या दिखाती है कि अलगाववादी और पाकिस्तान के पिट्टू कितने बौखलाये हुए हैं। कश्मीर घाटी के पृथकतावादियों की समर्थक कांग्रेस, पीडीपी व नेशनल कांफ्रेंस के किसी भी नेता ने एजाज़ अहमद शेख की जघन्य हत्या पर दुःख नहीं जताया। माफियाओं, गुंडों की मौत पर मातमपुर्सी करने वाले समाजवादी भी शेख की शहादत पर मौन हैं। इनसे गिला-शिकवा करना ही ग़लत है क्यूंकि इन सब की राजनीति दुराग्रही शक्तियों के भरण-पोषण में निहित है।
सारा देश एजाज़ अहमद शेख की असामयिक मृत्यु पर मर्माहित है। देश को उनकी बूढ़ी माँ, विधवा और छोटे-छोटे बच्चों की परवरिश के लिए कुछ ठोस कदम उठाना चाहिए।
गोविन्द वर्मा