23 दिसंबर, 2024 को मुजफ्फरनगर के मुस्लिम बहुल मोहल्ला लद्दावाला में दशकों से बन्द पड़े अतिक्रमित मंदिर की सफाई तथा शुद्धिकरण के पश्चात् हिन्दू संगठनों के प्रतिनिधियों एवं बघरा आश्रम के संस्थापक स्वामी यशवीर जी की उपस्थिति में विधि-विधान से पूजा-अर्चना की गई। कानून व्यवस्था बनाये रखने के तात्पर्य से प्रशासन-पुलिस के अधिकारी भी मौजूद थे । मंदिर लद्दावाला की उस गली में मौजूद है, जहां कभी हिन्दू समाज की बसासत थी, किन्तु आज वहां मुस्लिम समाज का आधिपत्य है।
इस समाचार के साथ आपको बहुत पीछे नहीं, 50 के दशक तक ले चलते हैं। भौगोलिक स्थिति के अनुसार यह इलाका आबकारी रोड से पश्चिम की ओर रामलीला टीला, न्याजूपुरा, दक्षिण में मिमलाना रोड से कुष्ट आश्रम के तमाम क्षेत्र को कवर करता हुआ हाजी के भट्टों तक जाता है। पूर्व में अस्पताल तिराहे पर इसका रास्ता खुलता है और पाल धर्मशाला से आगे कपूर इंजीनियरिंग, पैट्रोल पंप के समीप वाली गली से सावदी पुर रोड तक कई रास्ते लद्दावाला पहुंचते हैं।
मुजफ्फरनगर में दो कश्मीरी पंडित परिवार रहते थे। एक कौल साहब का जो डी.जी.सी. के पद पर तैनात थे, कंपनी बाग, मेरठ रोड पर अपनी कोठी बनाई हुई थी। इनके पुत्र अवतार नारायण कौल पुलिस महानिरीक्षक पद से सेवा निवृत होकर काफी समय तक इस कोठी में रहे।
दूसरा कश्मीरी परिवार रामप्रसाद किचलू का था, जो उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग के सचिव पद से रिटायर होने के बाद मुजफ्फरनगर के लद्दावाला मौहल्ले में बस गए थे। तब दूर-दूर तक खेत ही खेत थे और सैनी समाज के कुछ किसानों के सब्ज़ियों के बाड़े भी थे। किचलू साहब ने जमीन खरीद कर वहां एक बहुत बड़ा बाग लगवाया, उसी में अपनी रिहायश बनाई। आज वहां सैकड़ों पेड़ों में से एक भी वृक्ष नहीं बचा, लेकिन वह इलाका अब भी किचलू वाला बाग कहलाता है।
आजादी के बाद पच्चास-साठ के दशक तक लद्दावाला में हिन्दू-मुस्लिमों की मिली-जुली आबादी थी। दो मन्दिरों के अतिरिक्त लगभग 12-15 बीघा क्षेत्र में रविदास मन्दिर भी था, जिसका अब नामो निशान नहीं है क्यूंकि खेतों व बाडों तथा खाली पड़ी जमीनों पर दो मंजिले, तिमंजले मकान तामीर हो चुके हैं। 60-70 के दशक में लद्दावाला की डेमोग्राफी तेज़ी से बदली। हिन्दू परिवार स्वेच्छा से अपने मकानों को बेच कर अन्यत्र चले गए। ऐसा नहीं कि हिन्दुओं ने ही लद्दावाला मौहल्ला छोड़ा, तरक्की पसन्द मुस्लिम भी बाहर गये।
मुझे याद है कि अस्पताल से पश्चिम की ओर आने वाली ढलान वाली सड़क पर सतश्री महेन्द्रपाल सिंह (स्वामीजी) मस्जिद के पीछे रहने लगे थे। आवास में ही माता का मंदिर था। गुरुगद्दी भी आवास के बिल्कुल बगल में थी जहां प्रातः सांय सत्संग चलता था, हवन, कीर्तन, भंडारा यानी सभी हिन्दु अनुष्ठान होते थे। यह आवास चारों ओर से मुस्लिम आबादी से घिरा था। कोई व्यवधान या विरोध-गतिरोध नहीं था। प्रसाद व भंडारे में मुस्लिमों की संख्या भी ठीक-ठाक रहती थी। गुरुमहाराज सभी के मददगार थे। ईद से पूर्व मौहल्ले के मुस्लिम बच्चों व लड़कियों को नये वस्त्र-कपड़ा बांटते थे। इफ्तारी में फल व मिठाई देते थे।
लद्दावाला में सन् 1947 के बटवारे के समय भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। 1992 के दंगे के दौरान अनेक गरीब मुस्लिम परिवारों को चाय, भोजन के साथ ही जेब खर्च भी उपलब्ध कराया। बोपाड़ा आश्रम पर होने वाले भंडारे का सामान – आटा, चावल, चीनी साधनहीन मजदूरों में बाँट दिया। आज भी गुरुगद्दी पर सदाव्रत का प्रतिदिन वितरण होता है, जिसे पाने वाले प्राय: सभी मुस्लिम होते हैं।
कभी लद्दावाला से सगीर अंसारी नगरपालिका के सदस्य हुआ करते थे जो बहुत खुशमिजाज, मिलनसार शख्स थे। लद्दावाला के मीरासी परिवारों के सदस्य कव्वाली दुनिया में छा गए तो 50-60 के दशक में यहां की लड़की ने मुम्बई पहुंच कर कुक्कू के नाम से मशहूर नतृकी बन मुजफ्फरनगर की बॉलीवुड में धाक जमाई। लद्दावाला का नत्थू गुरुमहाराज का परमसेवक और भक्त था जिसका लड़का नफीस कालिया कभी अपराध जगत का बेताज बादशाह कहलाया।
तमाम उथल-पुथल और ताब्द तब्दीलियों के बाद लद्दावाला में भाईचारा बना रहा। हमने तो वह समय भी देखा है जब सफेद टोपी लगाये मुस्लिम हिन्दुओं का अभिवादन रामराम जी कहके करते थे किन्तु बाबरी कांड के बाद सफेद टोपी की जगह गोल टोपी आगई, जो अलग पहचान की द्योतक है।
यह देख कर खुशी हुई कि लद्दावाला के निवासियों ने मंदिर की सफाई व पूजा करने वालों का फूल बरसा के स्वागत किया और लड्डुओं का वितरण किया। हमारी कामना है कि लद्दावाला का सन्देश पूरे हिन्दुस्तान में फैले।
गोविन्द वर्मा
संपादक 'देहात'