हिन्दुस्तान के विभाजन के 78 वर्षों बाद नई पीढ़ी को शायद ही पता हो कि जो लोग आज सेक्युलर - सेक्युलर चिल्ला रहे है उनके बुर्जुगों ने ही हिन्दू मुस्लिम का भेद पैदा कर साम्प्रदायिकता और मजहबी घृणा के आधार पर देश का बटवारा कराया था। जिन्ना और नेहरू को बंटे हुए इलाकों पर राज करना था इस लिए हिन्दू व मुस्लिमों की आबादी को आधार बना देश को तीन टुकड़ों में बांट दिया गया। गांधी जी का कहना ढकोसला सिद्ध हुआ कि उनकी लाश पर बटवारा होगा।

बटवारे ने लाखों निर्दोषों की जान लेली, लाखों नारियों का शीलहरण हुआ और करोड़ों घर से बेघर होकर शरणार्थी बन गए। विभाजन के समय मेरी आयु मात्र 5 वर्ष की थी। मुझे वह खुनी मंज़र याद नहीं। हाँ यह भली भांति याद है कि विभाजन के बाद किस प्रकार नव्या नव सृजित पाकिस्तान में हिन्दुओं के नर संहार और मुस्लिम कट्टरपंथियों के जुल्म के शिकार हजारों उजड़े हुए लोगों ने मुजफ्फरनगर को अपना ठिकाना बनाया।

हमारे मझले मामा राजेन्द्र बहादुर तब युवा थे। सहारनपुर की ओर से आने वाली ट्रेनें पीड़ित परिवारों से खचाखच भरी आती थीं। मामा जी ने अपने हम उम्र युवकों की टोली बनाई हुई थी। वे रोटी, पुरियां, सब्जी बड़े-बड़े टोकरों में भरते और रेलवे स्टेशन ले जाकर बांटते।

पाकिस्तान के तास्सुबी मुस्लिमों के जुल्म के शिकार अनेक परिवार मुजफ्फरनगर आये। उस समय प्रदर्शनी मैदान दूर तक फैला हुआ था। उसकी सीमा गन्ना अनुसंधान केन्द्र से मिलती थी। तब वहां टीनशेड डाल कर सैकड़ों अस्थायी दुकानें बनाई गई थीं। पाकिस्तान से लुट-पिटकर आये सैकड़ों हिन्दू परिवारों को इन टिन शेडों में ठिकाना मिला। यहां आज पक्के बहुमंजिला मकान और शानदार कोठियां हैं, जो पंजाब से खदेड़े गए लोगों की पुरुषार्थ की निशानी है।

पाकिस्तान से निष्कासित इन परिवारों के लिए ग्राम सरवट, नसीरपुर, गढ़ी आदि के जंगल को आधिग्रहीत कर गांधी कॉलोनी नाम से नई बस्ती बसाई गई, जहां दो रुपये प्रति गज से प्लॉट आवंटित किये गए। कठोर परिश्रम और सूझबूझ के बल पर सैकड़ों परिवारों ने अपार कठिनाइयां झेलते हुए समाज में स्थान बनाया किन्तु इनकी पीड़ा व उजड़ने के दुःख को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

अपनी जन्मभूमि से उजड़ कर इन लोगों ने शुरू में तांगे चलाये, गांव दर गांव फेरियों लगा कर कपड़ा तथा अन्य चीजें बेची, पेंटिंग की, साइकिलों की मरम्मत की लेकिन हौसला नहीं तोड़ा। मैं सिर्फ एक परिवार का जिक्र कर रहा हूँ। अविभाजित हिन्दुस्तान के गुजरांवाला जिले के लालामुसा शहर में दो भाइ‌यों मुलकराज चड्डा व कृपाराम चड्डा का रोशनाई तैयार करने का बड़ा कार खाना था। मुस्लिम अधकारियों, सेना व पुलिस ने साजिश रच कर गुजरांवाला के हिन्दुओं का सफाया किया तो यह परिवार वहां से उजड़ कर जम्मू पहुंचा। मुजफ्फरनगर की जी.डी. एंड कम्पनी में इनकी स्याही आती थी। कम्पनी के मालिक अम्बा प्रसाद सरीन ने इन्हें मुजफ्फरनगर आने की सलाह दी। मुजफ्फरनगर में पहले वे रेलवे स्टेशन के सामने बने मंदिर में रहे। बाद में पुरानी घास मंडी में किराये के मकान में रहे। आज इस परिवार के पास जायदाद और रोजगार की कोई समस्या नहीं। पाकिस्तान से उजड़े करोड़ों परिवारों की यह कहानी है। अत्याचार, उत्पीड़न के शिकार ये परिवार कैसे काले अध्याय को भुला सकते हैं। भुलाना भी नहीं चाहिए। नरेन्द्र मोदी ने विभाजन त्रासदी दिवस के सहारे अतीत के अत्याचारों से अवगत रहने का सही कदम उठाया है ताकि वर्तमान पीढ़ी सदा आंखें खोल कर जिये।

गोविन्द वर्मा
संपादक 'देहात'