21 अक्टूबर: पराधीन भारत से लेकर आज़ादी के अमृतकाल तक पुलिस की छवि खराब क्यूं चली आ रही है? इस प्रश्न का जवाब शायद किसी के पास नहीं है या फिर कोई जवाब देना ही नहीं चाहता। जस्टिस आनन्द नारायण मुल्ला तो लिखकर चले गये लेकिन कोई इस इबारत को पढ़ना नहीं चाहता क्यूं कि सिस्टम में बदलाव से नेताओं का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब अखबारों या मीडिया के जरिये पुलिस का कोई न कोई कारनामा सामने न आता हो। मेरठ से प्रकाशित एक प्रमुख समाचारपत्र ने 20 अक्टूबर के अंक में पुलिस की कार्यप्रणाली संबंधी दो खबरें छापी हैं। एक में बताया गया है कि 17 अक्टूबर को मेरठ के लोहियानगर स्थित मकान में चल रही अवैध पटाखा फैक्ट्री को पुलिस ने कैसे एफआईआर में साबुन गोदाम दिखा दिया, जबकि भयंकर विस्फोट में पांच जानें चली गई थीं।
दूसरा समाचार बिजनौर जनपद का है जिसमें बताया गया है कि झालू चौकी प्रभारी दरोगा को

इस लिए निलंबित किया गया कि उसने एक दुष्कर्म पीड़िता को रात में गलत इरादे से देहरादून के एक होटल में बुलाया था। चूंकि महिला ने दरोगा की बदनीयती का ऑडियो एसपी के सामने पेश कर दिया था, इस लिए फिलहाल निलम्बन होना ही था।

इस तरह की घटनायें पुलिस की रोजमर्रा की कार्रवाई में शामिल हो चुकी हैं। पुलिस जनों की इन कारगुजारियों से सामान्यजन का उत्पीड़न तो होता ही है, शासन व कर्त्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारियों व नेक पुलिस कर्मियो की नाहक बदनामी भी होती है।

हमें यह स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिये कि पुलिस को तमाम विपरीत परिस्थियों में काम करना होता है। कभी-कभी तो बदमाशों, अराजकतत्वों से मुठभेड़ में पुलिसजनों को प्राणों की आहुति तक देनी पड़ जाती है। कई बार तस्करों, गौहत्यारों के समर्थक पुलिस पर हमलावर हो जाते हैं, किन्तु वे कर्त्तव्यपथ से विचलित नहीं होते। यह सन्तोष की स्थिति है कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारीगण कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक हैं। नयी पीढ़ी के पुलिस अधिकारी विशेष रूप से कर्त्तव्यों का मुस्तैदी से पालन करते हैं। उनकी दिन प्रतिदिन की चुनौतियों की कहानी कहीं नहीं छपती।

चन्द निकम्मे व भ्रष्ट लोगों के कारण पूरी पुलिस फ़ोर्स बदनाम हो, यह उचित नहीं। नेता या सरकार कानून बनाकर व्यवस्था में सुधार नहीं ला सकते। यह कार्य तो स्वयं पुलिसजनों को करना होगा, चाहे वे सेवा में हों या रिटायर हो चुके हैं हों।

गोविन्द वर्मा