पश्चिमी समाजवाद को अपना रोल मॉडल बनाने वाले पं जवाहरलाल नेहरू का आभामंडल धीरे-धीरे क्षीण हो रहा था और अचार्य नरेंद्रदेव, एस.एम जोशी, एन.जी रंगा, मधुलिमय, डॉ राम मनोहर लोहिया, राजनारायण, सालिगराम जयसवाल, प्रभु नारायण सिंह, जनेश्वर मिश्र, कैप्टन अब्बास अली जैसे भारतीय समाजवाद की अवधारणा के समर्थक अनेक नेता देश के राजनीतिक क्षितिज पर चमकने लगे थे। डॉ लोहिया फूलपुर (प्रयागराज) में नेहरू से सीधी टक्कर लेकर और जयपुर की महारानी के सामने मेहतरानी को चुनाव में लड़ा कर राजनीति में चहक रहे थे। समाजवादी लाल टोपी पहनते थे। सब लाल टोपी जुल्म-ज्यादती का विरोध करने वाले संघर्षशील कार्यकर्ता की पहचान थी।
आज तो कोई लाल टोपी को हनुमान के लंगोट के रंग में रंगा बता रहा है और कोई रामभक्त कार सेवकों के खून से रंगी टोपी बता रहा है किंतु जिस लाल टोपी वाले का मैं उल्लेख करने जा रहा हूं वह सवा सोलह आने निष्कपट, नि:स्वार्थ समाजवादी कार्यकर्ता था। मैंने दशकों तक उसे लाल टोपी पहने और गरीबों, मजलूमों, पीड़ितों के लिए संघर्ष करते देखा है। वह खतौली क्षेत्र का निवासी और डॉ राम मनोहर लोहिया का शैदाई था। डॉ लोहिया को 'मेरा माशूक' कह कर संबोधित करता था। डॉक्टर साहब कहते थे कि सच्चा समाजवादी सत्ता, संपत्ति व संतति के मोह में नहीं पड़ता। वह समाजवादी डॉ लोहिया की कसौटी पर सौ फीसद खरा उतरता था जिसका नाम था अमीरुद्दीन तूफानी। संपत्ति के नाम पर दो-चार बीघा जमीन थी जिससे उसका कोई लेना-देना नहीं था। संतति के नाम पर बेटी थी जिसका निकाह लोगों ने मिलजुल कर करा दिया था। सत्ता की बात करें तो तूफानी ग्राम प्रधान भी नहीं बने। जहां तक मुझे याद है डॉ लोहिया ने उन्हें और सत्यवीर अग्रवाल (जो आगे चलकर जनता पार्टी के जिलाध्यक्ष बने) को अपने हाथों से दो रूपये की रसीद काटकर सोशलिस्ट पार्टी का सदस्य बनाया था। तूफानी कभी स्कूल, मदरसा नहीं गये, आम आदमी की सीधी साधी भाषा में बात करते। गरीब की लड़ाई लड़ते-लड़ते उग्र हो जाते थे। जिसे सभ्य या सफेदपोश समाज कहते हैं, उसने कभी तूफानी को भाव नहीं दिया। पुलिस तथा दूसरे सरकारी अमले से गरीबों की हकतलफ़ी होने पर सीधी भिड़ंत कर लेते। कोई नेता, एमएलए या एमपी उनके पक्ष में खड़ा नहीं होता था। दो बार विधायक का चुनाव एक-एक, दो-दो रूपये मांग कर लड़े। एक बार खतौली से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ रहे राजेंद्र दत्त त्यागी ने उम्मीदवारी की जमानत के पैसे उन्हें दिये तो दूसरी बार जमानत राशि के पैसे कम पड़ने पर पीठासीन अधिकारी ने अपनी जेब से कमी पूरी की।
मेरे पास अपने धरने की खबर छपवाने आते रहते थे- वही लाल टोपी पहने। एक बार आकर बोले- भतीजे मेरी खबर छाप दो, मैंने अपना नाम अमीरुद्दीन चमार रख लिया है। मैंने मजाक में कहा- चचा यह खबर नहीं, विज्ञापन है, सौ रूपये जमा कराओ। बोले इतनी रकम मैं कहां से लाऊंगा। मैंने पूछा नाम के आगे चमार लिखने की क्या सूझी है? तो कहा- इन गरीब चमारों को जब देखो तब जाट, गुर्जर, त्यागी, पठान लठिया देते हैं। जरा अमीरुद्दीन चमार के हाथ लगा के देखें। फिर शुरू हो गए।
पुलिस से उनकी नोकझोंक अक्सर होती थी, लेकिन वे गरीबों की आवाज उठाने में पीछे नहीं रहते। पुलिस वाले तूफानी जी की पोलखोल नीति से झल्लाये रहते थे। एक इंस्पेक्टर ने बिल्कुल फर्जी मामला बना कर बुरी तरह से पिटवाया। कोई भी राष्ट्रवादी, समाजवादी या दलितवादी नेता उनकी पुश्त पर खड़ा नहीं हुआ। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के कुछ दिनों बाद लाल टोपी वाले अमीरुद्दीन तूफानी की मौत हो गई। इस खबर से मैं गहरे विषाद में डूब गया। मैंने तब तूफानी की क्रांतिकारी और गरीबों की आवाज उठाने के उनके जज्बे को सलाम करते हुए 'देहात' में दो कॉलम का संपादकीय प्रकाशित किया था। आज जब लाल टोपी और लाल पोटलियां थैलीशाहों व सत्ता के ठेकेदारों के कब्जे में आ गई हैं, चचा अमीरुद्दीन तूफानी बेसाख्ता रह-रह कर याद आ रहे हैं। उन्होंने लाल टोपी की गरिमा और मर्यादा को अपनी जान कुर्बान करने के सुरक्षित रखा। आधुनिक लाल टोपी वाले तो उनका नाम तक भूल गये होंगे। मैं ऐसे संघर्षशील सोशलिस्ट कार्यकर्ता को बार-बार प्रणाम करता हूं।
गोविंद वर्मा
संपादक देहात