18 अक्टूबर, 1976 के घटनाचक्र को आगे बढ़ाने से पूर्व पहले के कुछ दिनों की चर्चा करूंगा। केन्द्र में इन्दिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं लेकिन सिक्का संजय गांधी का चलता था। उत्तर प्रदेश में नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री ज़रूर थे लेकिन इन्दिरा-संजय के मनसबदारों की तरह काम करते थे। सुना था कि ब्रिटिश शासन काल में कलेक्टर साहब बहादुर और कप्तान बहादुर का रुतबा हुआ करता था। शहर के अमीर-उमरा उनके सामने हाथ बांध कर कतार में खड़े रहते थे। ठीक ऐसी ही स्थिति 1976 में मुजफ्फरनगर के कलेक्टर (जिला अधिकारी) के पद पर तैनात बृजेन्द्र (यादव) की थी। वे अपने नाम के आगे यादव नहीं लिखते थे, सिर्फ बृजेन्द्र लिखते थे। तब संजय गांधी के आदेश पर पूरे देश में नसबंदी अभियान चल रहा था। अधिकारी, पुलिस जवान लोगों को पकड़-पकड़ जबरन नसबंदी कराते थे। मुजफ्फरनगर में भी नसबंदी अभियान इसी तरह चल रहा था।
इसी बीच एक दिन बृजेन्द्र (यादव) का पिताश्री राजरूप सिंह वर्मा के पास फोन आया। बोले प्रेस पर आ रहा हूँ। प्रेस पर आए तो कहा कि मुख्यमंत्री जी की नसबंदी वाली अपील के पैम्फलेट अभी छपवा दीजिए। तिवारी जी का एक खूबसूरत फोटो छपना चाहिए। मैटर कंपोज हो गया, प्रूफ भी उन्होंने खुद देखा। फर्मा मशीन पर चढ़ा तो बिजली गायब हो गई। फौरन एस.ई. (विद्युत) को फोन किया। कहा- 'देहात प्रेस' पर बैठा हूं। फौरन यहीं आओ। वे दस मिनट के भीतर ही प्रेस पर आ गए। बृजेन्द्र (यादव) ने कहा- तुम्हारी बिजली कहां गई? प्रेस का काम कैसे चलेगा? दस मिनटों के भीतर बिजली आ गई। यह उनके काम करने का तरीका था।
उस समय मैंने डी.ए.वी. कॉलेज के विधि संकाय में प्रवेश लिया हुआ था। नगर के प्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. एस.एल.दत्ता का भतीजा चन्दर व मैं दोनों एक साथ डी.ए.वी. कॉलेज जाते आते थे। 18 अक्तूबर 1976 को जब डी.ए.वी. कॉलेज से घर की ओर चले तो खालापार चौक से पटाखे छूटने की आवाजें आ रही थीं। चन्दर ने कहा कि ये तो गोलियां चलने की आवाजें हैं, पता नहीं खालापार में गोलियां क्यूं चल रही हैं? प्लानिंग ऑफिस के रास्ते घर जाएंगे।
प्रेस, कार्यालय और निवास जिला अस्पताल से चन्द कदमों की दूरी पर था। मैं घर न जा कर अस्पताल पहुंचा। पुलिस वाहन व एंबुलेंस सायरन बजाते हुए धड़ाधड़ अस्पताल आ और जा रहे थे। वाहनों से खून में लथपथ घायलों को स्ट्रेचरों पर डालकर, ओटी और वार्डों में ले जाया जा रहा था। मैंने ऐसा भयावह दृश्य जीवन में कभी नहीं देखा था। वार्ड वाय से लेकर सिविल सर्जन तक सभी परिचित थे। किसी ने कहा- कर्फ्यू लगने वाला है, घर चले जाओ।
प्रेस में आने पर पता चला कि खालापार में जबरन नसबंदी का विरोध किया जा रहा था। नसबंदी के विरुद्ध जबरदस्त रोष व गुस्सा है। तकरार-मज़म्मत के बाद फायरिंग हुई है। कर्फ्यू लग गया। अगले दिन कोतवाली से कर्फ्यू पास भी आ गए। सरकारी आंकड़ों के अनुसार गोलीकांड में 42 लोग मरे थे।
स्थिति नियंत्रण के लिए मुख्यमंत्री ने आईएएस योगेन्द्र नारायण को मुजफ्फरनगर का नया कलेक्टर बना कर भेजा। वे पहले भी मुजफ्फरनगर के जिला अधिकारी रहे थे। व्यवहार कुशल एवं हर वर्ग में लोकप्रिय। तुरता-फुरती में सिर्फ एक जोड़ी पहनने के कपड़े लेकर मुजफ्फरनगर आये। सीधे क्रोध व रोष से उबलते मुस्लिम बहुल मौहल्ला खालापार पहुंचे। लोगों ने गुलदस्तों व फूल मालाओं से उनुका स्वागत किया। उनके मुजफ्फरनगर आते ही माहोल बदल गया। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल, मुख्यमंत्री के सचिव, शासन के मुख्य सचिव, केन्द्र में रक्षासचिव, राज्यसभा के सेक्रेटरी जनरल पद पर रहे। सूचना के अधिकार पर पीएचडी की। अब नोएडा में रह रहे हैं। मुजफ्फरनगर वासियों व उनमें अद्भुत प्यार व स्नेह का संबंध है।
बृजेन्द्र (यादव) दिवंगत हो चुके हैं। खाद्य व आबकारी विभागों के सचिव रहे। कुछ लोगों की नजरों में वे खलनायक थे किन्तु कुछ लोग, जिनमें मैं भी हूं, उन्हें फ़रमाँ-बरदार, निष्ठावान दबंग अधिकारी के रूप में देखते हैं।
गोविन्द वर्मा
संपादक 'देहात'