प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चिकित्सा लापरवाही के एक पुराने मामले में सुनवाई के दौरान निजी अस्पतालों पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि आज के दौर में कई निजी अस्पताल मरीजों को "एटीएम मशीन" की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, जहां मुख्य उद्देश्य सिर्फ पैसे निकालना रह गया है। न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार की पीठ ने डॉ. अशोक कुमार राय द्वारा दायर याचिका को खारिज करते हुए यह अहम टिप्पणी की।

यह मामला वर्ष 2007 में देवरिया जिले का है, जहां एक गर्भवती महिला की सिजेरियन सर्जरी में देरी के चलते गर्भस्थ शिशु की मृत्यु हो गई थी। परिजनों का आरोप था कि सर्जरी की सहमति सुबह 11 बजे दी गई, लेकिन ऑपरेशन शाम 5:30 बजे हुआ, तब तक भ्रूण की जान जा चुकी थी। इसके अलावा अस्पताल कर्मियों द्वारा परिजनों के साथ मारपीट और जबरन अतिरिक्त शुल्क की मांग के आरोप भी लगाए गए।

डॉक्टर की ओर से दायर याचिका में मुकदमे की कार्यवाही को निरस्त करने की मांग की गई थी, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया।

मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट पर अविश्वास
अदालत ने कहा कि मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट अधूरी थी क्योंकि आवश्यक दस्तावेज जैसे पोस्टमार्टम रिपोर्ट और ऑपरेशन थिएटर के नोट्स बोर्ड के समक्ष पेश नहीं किए गए। साथ ही, यह भी सामने आया कि एनेस्थेटिस्ट को दोपहर करीब साढ़े तीन बजे बुलाया गया, जिससे अस्पताल में समुचित तैयारी और संसाधनों की कमी उजागर होती है।

क्लासिक लापरवाही का मामला
कोर्ट ने कहा कि यह एक क्लासिक उदाहरण है, जिसमें चिकित्सक ने रोगी को भर्ती कर अनुमति लेने के बावजूद आवश्यक सर्जरी में कई घंटे की देरी की। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी मृत्यु का कारण "लंबी प्रसव पीड़ा" बताया गया है। यह दर्शाता है कि चिकित्सक ने अपने कर्तव्य का निर्वहन समय से नहीं किया।

सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का उल्लेख
न्यायालय ने डॉ. सुरेश गुप्ता बनाम दिल्ली सरकार और जैकब मैथ्यू बनाम पंजाब राज्य के सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि चिकित्सकों को तब तक कानूनी संरक्षण मिलता है जब वे अपने कार्य में उचित दक्षता और सावधानी बरतते हैं। लेकिन इस मामले में डॉक्टर की ओर से अपेक्षित सावधानी नहीं बरती गई, जिससे उनका आपराधिक दायित्व बनता है।

निष्कर्ष
कोर्ट ने कहा कि मरीज को भर्ती करने का समय, ऑपरेशन की अनुमति लेने का वक्त और वास्तविक सर्जरी का समय—ये सभी ऐसे तथ्य हैं जिन्हें सुनवाई में विस्तार से जांचा जाना चाहिए। इन आधारों पर अदालत ने हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए याचिका को खारिज कर दिया।