चुनावों में थैली की झंकार !

लोकसभा चुनावों का रणसिंघा बजने के बाद नेतागण नये-नये दाँव-पेंचों के साथ मैदान में उतर चुके हैं। सुप्रीया श्रीनेत, संजय राउत, अनुराग भदौरिया जैस बड़-बोले ढिंढोरची अपने तरकश से व्यंग्यबाण निकाल विपक्षियों पर साधने में जुटे हैं।

एक-दूसरे के साथ वाग्युद्ध में चुनावी फण्ड, कालाधन, चंदे के हथकंडों की चर्चा व दोषारोपण का सिलसिला भी आरम्भ हो चुका है लेकिन चुनाव खर्च पर कोई मुंह खोलने को तैयार नहीं। इस हाईटेक युग में चुनाव का खर्च 100 गुणा बढ़ा, 500 गुणा बढ़ा या हजार गुणा, कोई कुछ बताने की हैसियत में नहीं है।

एक अनुमान के अनुसार 2024 के लोकसभा चुनाव पर 1.20 लाख करोड़ रुपये की विपुल धनराशि व्यय होगी। यह रकम किसकी होगी, कहां से आयेगी, कौन खर्च करेगा, कहाँ-कहाँ, किस-किस पर खर्च होगी, इसकी तफसील न कोई देगा, न लेगा, तो व्यर्थ की माथापच्ची करना बेकार है। बस इतना समझ लीजिए कि चुनाव एक बड़ा पहाड़ है और इसे पहाड़ जैसी रकम की सीढ़ी के इस्तेमाल से ही लांघा जा सकता है।

चुनाव और चुनावी रकम से जुड़ी कुछ यादें ताज़ा हो आई हैं। कुछ आँखों देखी हैं, कुछ सुनी-सुनाई, लेकिन हैं सौ फीसद सत्य। मुजफ्फरनगर में शामली रोड पर सर्राफा बाजार के ठीक सामने (कश्मीर हाउस के ऊपर) अ.भा. काँग्रेस का ज़िला कार्यालय है। पांच दशक पूर्व यह कांग्रेस कार्यालय महावीर सिंह नामक सज्जन के हवाले था। वे कांग्रेस की छकड़ा जीप के ड्राइवर थे, कांग्रेस के कार्यालय सचिव थे और खजांची भी थे। यानी थ्री इन वन!

विधान सभा चुनाव आए तो कांग्रेस मुख्यालय से चुनाव खर्च की रक्रम भी महावीर सिंह ने सब उम्मीद‌वारों में बांट दी। एक कांग्रेस उम्मीद‌वार मलखान सिंह सैनी एडवोकेट भी थे। ग्राम लुहारी के निवासी लुहारी के लड्डू जैसे बैर अपनी मिठास के लिए प्रसिद्ध थे, वैसे ही वे भी अपनी मीठी बोली से पहचाने जाते थे। बड़े नेक, ईमानदार, सरल और स्पष्टवादी। बाबू नारायण सिंह (पूर्व उप मुख्यमंत्री) के निकटस्थ थे। महावीर सिंह ने पार्टी मुख्यालय से आया चुनावी खर्च (हमारी याद के मुताविक शायद 13,000 रुपये थे) मलखान सिंह जी को देने चाहे। पहले तो लेने से इंकार किया कि मुझे पार्टी से पैसा नहीं चाहिए। महावीर सिंह के आग्रह करने पर वह रकम रख ली।

मलखान सिंह चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस कार्यालय पहुंचे और खर्च से बची 3500 रुपये की रकम उन्हें वापस लौटा दी।

चुनाव में पैसा तो लगता ही है लेकिन ऐसे भी नेता थे जो खाली झोली के साथ चुनावी समर में कूद जाते थे। समाजवादी नेता लोकबंधु के नाम से विख्यात राजनारायण अपने राजनीतिक गुरु पंडित कमलापति त्रिपाठी के सामने चुनाव मैदान में उतरे हुए थे। न घोड़ा, न गाडी, फक्कड़ हालत। वाराणसी के एक चौराहे पर गुरु-चेला टकरा गए। त्रिपाठी जी के साथ उनकी पुत्रवधु व अन्य लोग कार में बैठे थे। राजनारायण जी को देखा तो पंडित जी ने कार रुकवा ली। बोले- क्या चुनाव ऐसे लड़ा जाता है? फिर पुत्रवधु से कहा- नेताजी को इतने रुपये दे दो, चुनाव के बाद लौटा देंगे। यह चुनाव लड़ने का एक अनोखा ढंग था।

जर्मनी से पीएचडी कर लौटे डॉ. राममनोहर लोहिया फूलपुर (प्रयागराज) में पं. जवाहरलाल नेहरू के मुकाबले चुनाव लड़ रहे थे। नेहरू जी के पास कारों का काफिला था, डॉ. लोहिया पैदल! कभी साइकिल, कभी इक्का पास होता था। नेहरू जी को पता चला तो एक जीप व 25 हजार रुपये भिजवाये। लोहिया जी ने रुपये तो वापिस कर दिए और जीप रख ली।

आजादी के बाद पहले 1952 के चुनाव में महान् स्वतंत्रता सेनानी काबुल में भारत की निर्वासित सरकार बनाने वाले राष्ट्रभक्त राजा महेन्द्र प्रताप के विरुद्ध नेहरू जी ने चौ. दिगम्बर सिंह को चुनाव में खड़ा किया। दोनों यमु‌ना के किनारे चुनाव प्रचार कर रहे थे। राजाजी ने देखा तो चौधरी साहब से बोले- यमुना के रेत में पैदल कैसे चलोगे? लो, यह गाड़ी ले जाओ! यह कह कर अपनी जीप चौ. दिगम्बर सिंह को सौंप दी। यह थे पुराने चुनावों के नज़ारे!

पहले पार्टियों उम्मीद‌वारों को चुनाव खर्च देती थीं। अब पार्टियों के नेता (नेत्री भी) टिकट देने के लिए उम्मीदवारों से मोटी रकम झटकते हैं। कुछ टिकट तो थैलियों की झंकार में ऐन वक्त पर बदल दिये जाते हैं। अजब-गजब स्थिति है। कुछ नेताओं को लोकतंत्र बचाने को पर्दे के पीछे रह कर बिना चुनाव लड़े राजनीति करनी पड़ती है। चुनाव लड़ेंगे तो सम्पत्ति का ब्यौरा देना पड़ेगा, ब्यौरा दिया तो लूट खसोट की पोल खुल जाएगी। चलिए बोलिये-लोकतंत्र (या धनतंत्र) अमर रहे! हमारे नेता की जय हो !!

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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