मुजफ्फरनगर में उत्तराखंड आंदोलनकारी महिलाओं से दरिंदगी के मामले में आरोपित पुलिसकर्मियों के विरुद्ध अभियोजन स्वीकृति को लेकर कोर्ट में बहस हुई। मामले मेंं अभियोजन स्वीकृति देने वाले पूर्व गृह सचिव डा. दीप्ति विलास ने कोर्ट में पेश होकर बयान दर्ज कराए। जबकि बचाव पक्ष के अधिवक्ता ने उनसे जिरह करते हुए जवाब मांगा कि किस आधार पर अभियोजन स्वीकृति दी गई थी।

करीब 30 साल पहले अलग राज्य गठन की मांग के लिए उत्तराखंड से हजारों आंदोलनकारियों ने कार और बसों से दिल्ली के लिए कूच किया था। जिन्हें थाना छपार क्षेत्र के रामपुर तिराहा पर बैरिकेडिंग लगाकर रोक दिया गया था। एक और दो अक्टूबर 1994 की रात को आंदोलन उग्र हो गया था। आरोप था कि पुलिस फायरिंग में 7 आंदोलनकारियों की मौत हुई। इस दौरान आंदोलनकारी महिलाओं से दरिंदगी के आरोप भी पुलिस कर्मियों पर लगे थे। सीबीआइ ने जांच कर 24 आरोपितों के विरुद्ध कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की थी। जिसके बाद तत्कालीन गृह सचिव डा. दीप्ति विलास से अभियोजन स्वीकृति प्राप्त कर सभी आरोपितों के विरुद्ध मुकदमे की कार्रवाई प्रारंभ कर दी गई थी।

सहायक जिला शासकीय अधिवक्ता परविंदर सिंह ने बताया कि घटना के मुकदमे अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश कोर्ट संख्या-7 शक्ति के समक्ष विचाराधीन हैं। उन्होंने बताया कि मंगलवार को पूर्व गृह सचिव की कोर्ट में गवाही हुई। बचाव पक्ष के वरिष्ठ अधिवक्ता सुरेन्द्र शर्मा ने पूर्व गृह सचिव से बहस की। कोर्ट के समक्ष्र उन्होंने तर्क दिया कि गृह सचिव को आरोपी पुलिस कर्मियों के विरुद्ध मुकदमा चलाए जाने की अनुमति देने का अधिकार ही नहीं है।

तर्क दिया कि अभियोजन स्वीकृति केवल वही अधिकारी दे सकता है, जिसे सरकारी कर्मचारी या अधिकारी की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त हो। उदाहरण दिया कि जैसे किसी कांस्टेबल की नियुक्ति का अधिकार एसएसपी अथवा डीआइजी को है, तो उसके विरुद्ध अभियोजन स्वीकृति केवल वही दे सकते हैं।