ओएलएक्स और क्वीकर जैसी साइट बनाकर पुराना सामान खरीदने और बेचने के नाम पर ठगी करने वाले गैंग का पर्दाफाश करते हुए स्पेशल सेल की साइबर क्राइम यूनिट ने 12 लोगों को दबोचा है। पकड़े गए आरोपियों में दो नाबालिग भी शामिल हैं। आरोपी आर्मी अधिकारी या अर्द्धसैनिक बल का जवान बनकर ऑनलाइन ठगी कर रहे थे।

पुलिस के अनुसार हरियाणा के नूंह, राजस्थान के भरतपुर और यूपी के मथुरा में बैठे शातिर ठग अब तक देशभर के हजार से अधिक लोगों को शिकार बना चुके हैं। राष्ट्रीय साइबर क्राइम पोर्टल पर गृह मंत्रालय को देशभर से 300 से अधिक शिकायतें मिली थीं।

इसके बाद दिल्ली पुलिस ने कार्रवाई करते हुए गैंग का पर्दाफाश किया है। पुलिस पकड़े गए आरोपियों से पूछताछ कर मामले की छानबीन कर रही है। पूछताछ में आरोपियों ने 1000 से अधिक लोगों के साथ ठगी की बात कबूली है।

साइबर क्राइम यूनिट के पुलिस उपायुक्त अनीश रॉय ने बताया कि सभी शिकायतों में आरोपियों ने खुद को आर्मी अधिकारी या अर्द्धसैनिक बल का जवान बताकर ठगी की थी। शिकायतों पर दिल्ली पुलिस की साइबर क्राइम यूनिट ने भी पड़ताल की। टेक्निकल सर्विलांस और मुखबिरों से जानकारी जुटाकर पुलिस ने आरोपियों की पहचान की। आरोपी हरियाणा के नूंह, राजस्थान के भरतपुर और यूपी के मथुरा में बैठकर वारदात को अंजाम दे रहे थे। सभी आरोपियों के पास असम या तेलंगाना राज्यों के फर्जी पतों पर निकलवाए गए सिमकार्ड थे। पकड़े गए आरोपियों में नूंह निवासी हस्बन (22), हसीब (24), शहजाद खान (26), अजीम अख्तर (25), शाकिर (29), फैसल (19), साजिद (27), साबिर (25), बल्लभगढ़ निवासी यशवीर (26) और भरतपुर निवासी सलीम (35) शामिल हैं। शाकिर गैंग लीडर है। कुछ लोग सिमकार्ड और कुछ बैंक खातों का इंतजाम करते थे। बाकी लोग आर्मी अधिकारी बनकर फोन पर लोगों से ठगी करते थे।
इस तरह करते थे ठगी
पहले तरीके में आरोपी महंगे मोबाइल, कार, बाइक या अन्य सामान का एड इन साइट पर डाल देते थे। खुद को आर्मी अधिकारी बताते थे। इसके बाद जो लोग कार, बाइक या अन्य सामान खरीदने की इच्छा रखते थे, उनको आर्मी के नियम बताकर ट्रांसपोर्ट, हैंडलिंग, जीएसटी व अन्य चार्ज के नाम पर एडवांस पैसा खाते या ई-वॉलेट में ट्रांसफर करवा लेते थे। इसके अलावा सामान खरीदने के नाम पर ठगी की जाती थी। सामान खरीदने के नाम पर एक विशेष एप से सामान के भुगतान का बहाना किया जाता था। बाद में कुछ तकनीकी खराबी आने की बात कर क्यूआर कोड पीड़ित के पास भेजकर उसे स्कैन करने और पेमेंट करने की बात की जाती थी। जैसे ही पीड़ित क्यूआर कोड स्कैन करते थे, उनके खाते से रुपये ट्रांसफर हो जाते थे।

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