72वें गणतंत्र दिवस पर अन्नदाता कहलाने वाले किसानों ने राजधानी में षड्यंत्रपूर्ण के तहत देश की मर्यादा एवं सम्मान को तार-तार करने की जो काली करतूत की है, उससे सारा राष्ट्र कुपित तथा आक्रोशित हैं। गणतंत्र दिवस पर जब हमारे जवान सत्राह हज़ार फीट की ऊंचाई पर लद्दाख की बर्फबनी झील पर राष्ट्रध्वज लहरा रहे थे तब अन्नदाता पुलिस के जवानों को ट्रैक्टर से रौंदते हुए, उन पर लोहे के सरियों, तलवारों और लाठियों से प्रहार कर लाल किले की प्राचीर पर अपना झंडा फहरा रहे थे। अन्नदाताओं की इस काली करतूत को न केवल देश के करोड़ों लोगों ने टेलीविजन के माध्यम से देखा बल्कि पूरी दुनिया में विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक प्रतीक को अपमानित होते हुए देखा। लोगों ने देखा कि भारत के शत्रु देश के अन्नदाताओं की इस करतूत पर किस प्रकार हर्षित होकर तालियां बजा रहे थे और प्रचंड बहुमत से चुनी सरकार को शर्मसार करने के लिए बेशर्मी निर्जल्लता के साथ अराजकता और हिंसा फैलाने की नयी साजिशें रचने में जुटे हुए हैं।
देश के लोगों को, विशेषकर नयी पीढ़ी को नये सिरे से सोचना होगा कि यह महान देश सैकड़ों बरसों तक गुलाम क्यों रहीं? गुरु तेग बहादुर और गुरु गोबिंद सिंह महाराज तथा महाराणा प्रताप जैसे बलिदानियों की कुर्बानियों के बावजूद देश विदेशियों का गुलाम क्यों रहा?
भारत का दुर्भाग्य है कि इस देश मे महान त्यागी, तपस्वी, विद्वान एवं रणबांकुरे भी जन्म लेते रहे और जयचन्द तथा मीर जाफर जैसे गद्दार भी पैदा होते रहे। आज भी ये बार बार जन्म लेकर भारत को छल रहे हैं और विदेशी टुकड़ों पर पलने की उनकी पुरानी परम्परा अब भी कायम है। देश के ये गद्दार भारत विरोधी शत्रुओं से कम अपराधी नहीं है। राष्ट्र प्रेमियों का धर्म बनता है कि वे इन गद्दारों और उनको सहारा व उकसावा देने वालों को बेहिचक नंगा कर उनके मुखोटें उतार फैंके। ये लोग दिल्ली में हुई हिमाकत का जिस प्रकार बेशर्मी से समर्थन कर सरकार व पुलिस पर दोषारोपण कर ख़ुद को पाक साफ सिद्ध कर रहे हैं, इस पाखंड जो दृढ़ता से चूर चूर करने की आवश्यकता है।
जिस जनता ने दो-दो बार प्रचंड बहुमत देकर सरकार को देश चलाने की बागडोर सौंपी है, उनका सर्वप्रथम कर्तव्य बनता है कि वह देश के गद्दारों का सिर कुचलने में जर्रा भर भी उदासीनता या लापरवाही न दिखायें। इस लापरवाही का परिणाम है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 28 हजार जवानों को देश की मान मर्यादा और अखंडता की रक्षा में प्राण न्योछावर करने पड़े। यदि सरकार चलाने वालों को इस कर्तव्य के पालन का मूल्य अदा करना पड़े तो हिचकने की जरूरत नहीं। यदि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने कर्तव्य पालन में हिचकती है तो इतिहास उन्हें भी गद्दारों की कतार में खड़ा करेगा।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’