19 अप्रैल को, जब मतदान के बाद लोग हार-जीत का कयास लगाने में जुटे थे। एक मनहूस, दिल दहलाने वाली खबर मिली विवेक चौहान नहीं रहा। दैनिक सदाशय में तकरीबन पन्द्रह बरसों तक विवेक ने रोज 10-10, 12-12 घंटे काम किया। मुझे पता था कि वह काफी बीमार चल रहा है लेकिन यह कतई ख्याल नहीं था कि वह अचानक इस तरह छोड़ कर चला जाएगा।
जब लोग एक साथ काम करते हैं, बारहों महीने एक साथ उठते बैठते हैं तो सबके अन्दर-बाहर का एक दूसरे को पता रहता है। वह ‘सदाशय’ की क्राइम बीट देखता था। सायंकालीन अखबार होने के कारण दोपहर तक अपनी खबरें समेट लेता था। लिखना या लैपटॉप पर टाइप करना दैनिक दिनचर्या तो थी ही, भाई देवेन्द्र मित्तल (संपादक-संचालक) के अन्य कार्य भी बड़ी मुस्तैदी से निपटाता था। उनके गाजियाबाद जाने के बाद भी कार्यालय प्रतिदिन बिना नागा खुलता था। सौंपे गए काम निपटाता था। देवेन्द्र जी भी उसका पूरा ख्याल रखते थे।
जहां तक आदत का सवाल है। मैं समझ नहीं पाया कि उसका स्वभाव क्रोधी है या स्वाभिमानी, लेकिन इस स्वभाव ने उसके कार्यों में कभी बाधा उत्पन्न नहीं की। मैं जानता हूं कि उसका जीवन कठोर संघर्ष व परिश्रम से बीता। मृत्यु से 15 दिन पूर्व उसका फोन आया। आवाज में कमजोरी थी। बताया कि बीमार है। वह मुजफ्फरनगर और मोरना-बिजनौर पर कुछ लिखवाना चाहता था। मैंने मना कर दिया। उसने कहा- मैं जानता था कि आप के उम्मीदवारों से व्यक्तिगत संबंध है। किसी झमेले में नहीं पड़ेंगे। मैंने कहा- तुमसे मिलने घर आऊंगा। नहीं जा सका, जिन्दा रहने तक इसका मलाल रहेगा। यह खुशी है कि विवेक ने पत्रकारिता को कभी कलंकित नहीं किया। अफसोस है कि उसके वृद्ध माता-पिता, भाई, पत्नी, व बच्चों और बड़ी संख्या में उसके परिचित इस दारुण कष्ट को भोगने के लिए मजबूर हैं। वह असमय चला गया लेकिन यादों में सदा बना रहेगा।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’