यादों के झरोखे (1)

आज प्रिय पाठकों के साथ अपना निजी अनुभव साझा कर रहा हूँ। पत्रकार समाज में एक हंसमुख खुश-मिजाज साथी के रूप में अपनी पहिचान बनाने वाले भाई सलेकचन्द पाल की आदरणीया माता जी सरोज देवी का 28 मार्च, 2024 को निधन हो ग‌या था। मैं 30 मार्च को फ्रेंड्स कॉलोनी मुजफ्फरनगर में उनके आवास पर संवेदना प्रकट करने पहुंचा तो पता चला कि बंधुवर सलेकचन्द अस्थि विसर्जन के लिए हरिद्वार गये हुए हैं।

वहां मुझे दो सज्जन बैठे मिले जिनसे मैं अपरिचित था। उनमें से बड़ी उम्र के एक महानुभाव बोले- क्या आपका नाम गोविन्द है? मैंने सोचा मुझसे परिचित होंगे किन्तु मैं उन्हें नहीं पहचान पा रहा था। फिर बोले- क्या आप ब्राह्मण कालेज में पढ़े हैं, जब सुखदेव शर्मा जी प्रिंसिपल थे, पं. रामचन्द्र शर्मा जी हिन्दी-संस्कृत और योगीराज जी भूगोल पढ़ाते थे? और भी कई अध्यापकों के नाम उन्होंने लिए।

मैंने आश्चर्य से उनके चेहरे पर निगाहें गड़ाई और उन्हें पहचानने की कोशिश करने लगा। फिर वे बोले- 65 वर्ष बाद मिलने पर भी मैंने आपको पहचान लिया कि आप गोविन्द वर्मा हैं।

मेरा हैरान और प्रसन्न होना स्वाभाविक था। फिर पुरानी यादों की लम्बी चर्चा चली। कैसे कच्ची सड़‌क तब कच्ची ही थी। गाजावाली पुलिया की एक ओर बड़ा तालाब था, एक और तेलियों का कब्रिस्तान था। आगे केवलपुरी में 15-20 कच्चे मकान थे और सामने सिर्फ एक पक्की कोठी अलम साहब की थी। बाद में एक पक्का मकान मिस्त्री ताराचन्द ने बनवाया था। जो मिर्जापुर के माताटीला बांध की ठेकेदारी करते थे।

दोनों ने याद किया कि शहर के सबसे बड़े तालाब-ढंढ का जोहड़ भी वहां कभी था। तभी उन्होंने कहा- जहां हम बैठे हैं वहा तालाब था। 15 फिट का भराव करके यह कॉलोनी बनी है। मुझे बचपन के ढंढ के जोहड़‌ की याद आई। दूर-दूर तक खेत और बागात थे। एक बाग कैप्टन डॉक्टर त्यागी जी का भी था, जहां बचपन में खेलते थे लेकिन यह नहीं पता था, आज भी नहीं जानते कि ढंढ क्या होता है, और किस भाषा का शब्द था। उस विशाल जोहड़ में अब सैकड़ों कोठियां खड़ी हैं। वे सज्जन सलेकचंद पाल के भाई सोमपाल निकले। जिन्होंने मुझे 65 वर्ष पुरानी यादें लौटाई।

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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