भारत की सांस्कृतिक चेतना के अग्रदूत थे वीर सावरकर !

भारत को विदेशी शासकों की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए संघर्ष और बलिदान देने वाले वीरों की गौरवगाथा इतिहास के आगोश में समाई हुई है जिनमें से कुछ को हम भूल गए, कुछ को जानबूझकर बिसराने का प्रयास किया गया, कुछ को सत्तालोलुप नेता व नेत्रियों ने आतंकी बता कर लांछित करने का षडयंत्र रचा। भारत के इन विलक्षण सपूतों में ही एक थे विनायक दामोदर सावरकर।

वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 में नासिक के ब्राह्मण परिवार में हुआ था। महान क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा के सहयोग से कानून की पढ़ाई के लिए वे लंदन गए। वहां ‘फ्री इंडिया सोसाइटी’ की स्थापना की। उन्होंने 1857 के आन्दोलन को पहला स्वतंत्रता आन्दोलन सिद्ध करने के उद्देश्य से ‘इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस’ नाम की पुस्तक लिखी।

वीर सावरकर पर नासिक के कलक्टर की हत्या का आरोप लगाकर 13 मार्च 1910 को गिरफ्तार कर लिया गया। 1911 में उन्हें 50 वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई। भीषण यंत्रणा देने को उन्हें कालापानी भेजा गया जहां उनके हाथों पैरों में जंजीर बांधकर कोल्हू में बैल की तरह जोता जाता था और उन्हें प्रतिदिन 30 पौंड सरसों से तेल निकालना पड़ता था। अमानवीय उत्पीड़न एवं खराब स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने एक पेम्फलेट लिखा जिसमें स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत को सांस्कृतिक आधार पर एक हिंदू राष्ट्र बनाने की कल्पना की गई।

सावरकर जी भारत को द्विराष्ट्र सिद्धांत पर विभाजित करने के पक्ष में नहीं थे। 6 जनवरी 1924 को जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन को सहयोग देने की खुलकर आलोचना की। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि भारत को सबल राष्ट्र बनाने में हिंदू, सिख, बौद्ध व जैन धर्मावलंवियों का सहयोग रहेगा किन्तु मुस्लिम व ईसाई उसमे ‘मिसफिट’ हैं। वे खुद को नास्तिक मानते थे और जातिवाद, छुआछूत तथा अन्य सामाजिक बुराइयों का जमकर विरोध करते थे।

उन्होंने ‘हिंदुत्व’ की दार्शनिक परिभाषा की जो संकीर्णता से यथार्थवाद, नैतिकवाद, प्रत्यक्षवाद पर आधारित थी। सावरकर जी प्रखर वक्ता, लेखक, कवि व कानूनविद् थे। उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी। अंग्रेजों से अधिक वे भारत में सेक्युलरवादियों तथा वामपंथियों की आंखों में खटकने लगे थे। विशेषरूप में मुस्लिम तुष्टिकरण को हवा देने वाले नेता उन्हें अपना घोर शत्रु मानते थे। उनके राष्ट्रवाद की धारणा का सेक्युलरवादियों ने नियोजित तरीके से विरोध शुरू किया। राष्ट्र के प्रति उनकी सेवाओं की अवहेलना कर उनको माफीनामें की कहानी उछाली गई यद्यपि उस कथित माफीनामे का कोई भी पुष्ट प्रमाण आज तक पेश नहीं किया जा सका।

वीर सावरकर को गांधी हत्याकांड का दोषी बताकर मुकदमा चलाया गया जिसमें उनके विरूद्ध सबूत न मिलने पर उन्हें बरी कर दिया गया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की परिस्थितियों से वे खिन्न थे। पुरातन भारतीय संस्कृति के उदात्त सिद्धांतों पर आधारित हिंदू राष्ट्र की स्थापना का मार्ग अवसरवादी नेताओं ने अवरुद्ध कर दिया था।

11 फरवरी 1966 को उन्होंने एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था ‘आत्महत्या नहीं आत्मसमर्पण’। इसमें लिखा था- व्यक्ति को निश्चित उद्देश्यों के लिए जीने व मरने की अनुमति मिलनी चाहिए। वीर सावरकर ने अन्न व जल ग्रहण करना छोड़ दिया। वे इच्छामृत्यु के संकल्प की ओर बढ़ रहे थे। 26 फरवरी 1966 को उनका शरीरान्त हो गया। वीर सावरकर की गौरव गाथा सृष्टि पर्यंत सुनी जाती रहेगी। भारत की पुरातन सांस्कृतिक चेतना के पुरोधा को 138वें जन्मदिन पर श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं।

गोविंद वर्मा
संपादक देहात

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