नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को बोतलबंद पेयजल के लिए अंतरराष्ट्रीय मानकों को लागू करने की मांग वाली जनहित याचिका पर सुनवाई करने से मना कर दिया। अदालत ने इसे ऐसे देश में “लग्जरी मुकदमेबाजी” करार दिया, जहां आज भी बड़ी आबादी को बुनियादी स्तर पर सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं है।
प्रधान न्यायाधीश सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने टिप्पणी की कि देश के कई हिस्सों में लोगों को पीने का पानी ही नसीब नहीं है, ऐसे में बोतलबंद पानी की गुणवत्ता पर बहस प्राथमिक मुद्दा नहीं हो सकती। पीठ ने कहा कि अदालत जमीनी हकीकतों से आंख नहीं मूंद सकती।
यह याचिका सारंग वामन यादवाडकर की ओर से दायर की गई थी, जिसमें भारतीय सीलबंद पेयजल मानकों को वैश्विक स्तर के अनुरूप बनाने के निर्देश देने की मांग की गई थी। सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अनीता शेनॉय ने इसे जन स्वास्थ्य और उपभोक्ता सुरक्षा से जुड़ा विषय बताते हुए कहा कि नागरिकों को सुरक्षित और स्वच्छ बोतलबंद पानी का अधिकार है। उन्होंने खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम, 2006 की धारा 18 का हवाला देते हुए निर्धारित मानकों के सख्त पालन की आवश्यकता पर जोर दिया।
हालांकि पीठ इस तर्क से सहमत नहीं हुई और याचिका को शहरी दृष्टिकोण से प्रेरित बताया। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोग भूजल का उपयोग करते हैं और उन्हें कोई समस्या नहीं होती। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि क्या भारत अमेरिका, जापान या यूरोपीय संघ जैसे देशों के मानकों को मौजूदा परिस्थितियों में लागू कर सकता है।
अदालत के रुख को देखते हुए याचिकाकर्ता की ओर से याचिका वापस लेने की अनुमति मांगी गई, जिसे पीठ ने स्वीकार कर लिया। साथ ही खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के समक्ष अपनी शिकायतें रखने की स्वतंत्रता भी दी गई।
सुनवाई के अंत में मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि महात्मा गांधी ने देश की वास्तविक स्थिति समझने के लिए गांव-गांव यात्रा की थी। उन्होंने सुझाव दिया कि याचिकाकर्ता को भी उन इलाकों का दौरा करना चाहिए, जहां पानी मिलना ही सबसे बड़ी चुनौती है, तभी देश की असली तस्वीर सामने आएगी।