नई दिल्ली। जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने संसद में वंदे मातरम् पर हुई बहस के संदर्भ में स्पष्ट किया कि मुसलमानों को वंदे मातरम् पढ़ने या गाने में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उनका धार्मिक विश्वास केवल एक अल्लाह की इबादत करने का है और किसी अन्य को इसमें शामिल नहीं किया जा सकता।

मौलाना मदनी ने मंगलवार को जारी बयान में कहा कि वंदे मातरम् की कुछ पंक्तियां इस्लामी आस्था के खिलाफ हैं, विशेषकर चार पंक्तियां जो देश को देवी दुर्गा के रूप में प्रस्तुत करती हैं और उनकी पूजा का शब्द प्रयोग करती हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय संविधान हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) देता है, इसलिए किसी को भी उसके धार्मिक विश्वास के खिलाफ किसी गीत या नारे के पालन के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।

उन्होंने यह भी कहा कि देशभक्ति का मतलब दिल की सच्चाई और कर्म से है, न कि किसी गीत या नारे से। मौलाना मदनी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि किसी नागरिक को राष्ट्रगान या किसी ऐसे गीत को गाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता जो उसकी धार्मिक आस्था के खिलाफ हो।

मौलाना ने ऐतिहासिक संदर्भ भी साझा किया कि 26 अक्टूबर 1937 को रवींद्रनाथ टैगोर ने कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर वंदे मातरम् के केवल पहली दो पंक्तियों को राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार करने की सलाह दी थी, क्योंकि बाकी की पंक्तियां एकेश्वरवादी धर्मों के सिद्धांतों के खिलाफ थीं। 29 अक्टूबर 1937 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने यही निर्णय लिया।

उन्होंने कहा कि वंदे मातरम् के कुछ शब्द हिंदू देवी दुर्गा की स्तुति में हैं और मुसलमान इसीलिए इसे गाने से परहेज करते हैं। मौलाना ने कहा, "मरना स्वीकार है, लेकिन शिर्क (अल्लाह के साथ किसी साझी) स्वीकार नहीं है।"

मौलाना ने सवाल उठाया कि क्या संसद में इतने विवादित मुद्दों के अलावा कोई ऐसा मुद्दा नहीं है, जो देश और जनता के हित में हो। उन्होंने आरोप लगाया कि आजकल ऐसे विवादित विषयों पर बहस केवल वोट बटोरने या समाज को धार्मिक आधार पर बांटने के लिए की जाती है।

मौलाना मदनी का बयान देश के संविधानिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता के दायरे में वंदे मातरम् को लेकर बहस को सीमित करने की अपील करता है।