वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के समय एक पैशाचिक कुकृत्य ने इंसानियत को शर्मसार कर दिया था। दंगाइयों ने बिलकिस बानो नामक महिला से सामूहिक दुष्कर्म किया और उसके परिवार के सात सदस्यों की हत्या कर दी थी। इस राक्षसी घटना से पूरा देश हिल गया था। यह काली-करतूत इतनी जघन्य थी जिसके अपराधियों को फांसी की सजा मिलनी चाहिए थी किन्तु सतत कानूनी पेचीदगियों के चलते अन्ततः दोषियों को आजीवन कारावास की सजा मिली।

सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह हुई कि गुजरात सरकार ने अनाधिकार चेष्टा करते हुए 15 अगस्त 2022 को एक अपराधी राधेश्याम के झूठे एफीडेविट के बहाने इन सभी 11 अपराधियों को जेल से रिहा कर दिया। गुजरात सरकार के इस हैरतअंगेज फैसले पर देशभर में उंगलियां उठाई गई थीं। स्पष्टतः यह कदम पीड़िता बिलकिस बानो के हृदय को विदीर्ण करने वाला और न्याय प्रक्रिया के साथ एक क्रूर मजाक था।

अब सोमवार 8 जनवरी, 2024 को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बी. वी नागरत्ना व जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने गुजरात सरकार के निर्णय को न केवल कानून विरोधी बताया, बल्कि उससे यह भी पूछा कि क्या महिलाओं के खिलाफ़ जघन्य अपराधों में छूट की अनुमति है, चाहे वह किसी भी धर्म या सम्प्रदाय को मानने वाली हो? प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो के कथन को उद्‌धृत करते हुए जस्टिस बी. वी. नागरत्ना ने कहा कि प्लेटो के अनुसार सज़ा प्रतिशोध के लिए नहीं अपितु सुधार के लिए दी जाती है, पर पीड़िता के भी कुछ अधिकार हैं।

शीर्ष न्यायालय ने गुजरात सरकार के निर्णय को रद्द करते हुए फैसला दिया कि सभी 11 दोषी दो सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण कर दें ताकि उन्हें सलाखों के पीछे भेज दिया जाए।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से न्याय की पताका ऊंची हुई है। अदालती निर्णय की निन्दा या प्रशंसा करना सामान्तः सही नहीं माना जाता। देश में ऐसे अवसरवादी लोग मौजूद हैं, खासकर नेता, जो अपने अनुकूल फैसला न आने पर सुप्रीम कोर्ट तक की निन्दा करने लगते हैं। इन स्वार्थी नेताओं के अपने-अपने एजेंडे हैं। इन्हें दरकिनार कर कोर्ट के न्यायसंगत फैसले का स्वागत किया जाना लोकतंत्र को मज़बूत करता है।

गोविन्द वर्मा