उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने बुधवार को कहा कि भारत को वैश्विक शक्ति के रूप में उभरते समय अपनी सांस्कृतिक और बौद्धिक पहचान को भी साथ लेकर चलना होगा। उन्होंने कहा कि टिकाऊ प्रगति वही होती है जो देश की परंपराओं और मूल्यों से जुड़ी हो।
"हमारी बौद्धिक परंपरा ही हमारी सॉफ्ट पावर है," उपराष्ट्रपति ने कहा। उन्होंने कहा कि किसी भी राष्ट्र की शक्ति उसकी मौलिक सोच, कालातीत मूल्यों और गहरी बौद्धिक परंपरा में निहित होती है, जो लंबे समय तक असर डालती है।
नई दिल्ली में आयोजित भारतीय ज्ञान प्रणाली (IKS) पर पहले वार्षिक सम्मेलन को संबोधित करते हुए धनखड़ ने कहा कि भारत कोई नया राजनीतिक राष्ट्र नहीं, बल्कि एक प्राचीन और सतत सभ्यता है, जो ज्ञान, चेतना और जिज्ञासा की एक जीवंत धारा के रूप में सदियों से बहती आ रही है।
"देशज ज्ञान को पिछड़ा बताना एक बड़ी ऐतिहासिक भूल"
उपराष्ट्रपति ने कहा कि हमारे देशज विचारों को केवल आदिम और अविकसित मानकर दरकिनार करना महज एक व्याख्यात्मक चूक नहीं, बल्कि यह हमारी ज्ञान परंपरा को नष्ट करने की एक साजिश का हिस्सा था। यह दुखद है कि स्वतंत्रता के बाद भी यही मानसिकता बनी रही और पश्चिमी अवधारणाओं को एकमात्र सत्य के रूप में प्रस्तुत किया गया।
उन्होंने कहा, “हमने रटना शुरू कर दिया, सोचना और चिंतन करना छोड़ दिया। ग्रेड्स ने मौलिक सोच की जगह ले ली।”
"आक्रमण और उपनिवेशवाद ने हमारी ज्ञान परंपरा को बाधित किया"
उपराष्ट्रपति ने ऐतिहासिक व्यवधानों की चर्चा करते हुए कहा कि भारतीय विद्या परंपरा पर पहला आघात इस्लामी आक्रमणों के दौरान पड़ा, जहां समावेश के बजाय विध्वंस को अपनाया गया। ब्रिटिश राज ने दूसरा बड़ा झटका दिया, जब शिक्षा का उद्देश्य ही बदल दिया गया। “ऋषियों की भूमि को बाबुओं की भूमि में बदल दिया गया,” उन्होंने कहा।
"तक्षशिला से विक्रमशिला तक, भारत का ज्ञान रहा वैश्विक"
धनखड़ ने कहा कि जब दुनिया की प्रमुख यूनिवर्सिटियां अस्तित्व में नहीं थीं, तब भारत में तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी और ओदंतपुरी जैसे शिक्षा केंद्र ज्ञान का प्रकाश फैला रहे थे। उन्होंने बताया कि इन संस्थानों में हजारों पांडुलिपियों वाले पुस्तकालय थे और कोरिया, चीन, तिब्बत, फारस जैसे देशों से छात्र अध्ययन करने आते थे।
"ज्ञान केवल पुस्तकों में नहीं, अनुभव और परंपराओं में भी होता है"
उपराष्ट्रपति ने कहा कि सच्चा ज्ञान सिर्फ ग्रंथों में नहीं होता, बल्कि यह पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं, समुदायों और अनुभवों में भी जीवंत रहता है। उन्होंने शोध को अनुभव और शास्त्र दोनों के संतुलन के साथ करने की जरूरत बताई।
उन्होंने यह भी कहा कि संस्कृत, तमिल, पाली, प्राकृत जैसी शास्त्रीय भाषाओं के ग्रंथों को तुरंत डिजिटाइज़ कर शोधकर्ताओं के लिए सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराना चाहिए। इसके साथ ही युवाओं को दर्शन, गणना और तुलनात्मक अध्ययन जैसे क्षेत्रों में शोध प्रशिक्षण देने की जरूरत है।
"परंपरा और नवाचार एक-दूसरे के पूरक"
धनखड़ ने कहा कि ज्ञान परंपरा और नवाचार एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक होते हैं। उन्होंने ऋग्वेद के खगोलीय मंत्रों और चरक संहिता के संदर्भ में बताया कि इनका उपयोग आज की वैज्ञानिक बहसों में किया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि भारत की वह ज्ञान परंपरा, जो आत्मा और जगत, कर्तव्य और परिणाम, मन और पदार्थ के बीच के संबंधों पर सदियों से चिंतन करती आई है, आज की विभाजित दुनिया में एक दीर्घकालिक समाधान बन सकती है।