13 नवम्बर की दोपहर को नई मंडी, मुजफ्फरनगर के शमशान घाट पर चन्द रिश्तेदारों और परिजनों की मौजूदगी में गुमनाम शख्स की तरह उसका अंतिम संस्कार सम्पन्न हो गया। न श्रद्धांजलि, न शोक संवेदना। वह न मंत्री था न सांसद और न ही विधायक। चाहता तो बन सकता था। राजनीति के अपराधीकरण और अपराधीकरण के राजनीतिकरण दौर में उसने न थोकबन्द नेताओं की कदम बोसी की, न ही तोता-चश्म बन कर आंखें तरेत कर किसी नेता को ब्लैक मेल कर कुछ हासिल किया। डॉ. राममनोहर लोहिया और राजनारायण सिंह का जीवन पर्यन्त अनुयायी रहा और सच्चे समाजवादी का जीवन जीते हुए गुमनाम मौत मर गया।
60-70 के दशक में अपनी रिहाइश, प्रेस या कार्यालय कहें, उसने आनंद मार्केट में किराये के मकान में सोशलिस्ट पार्टी का दफ्तर बनाया था। एक श्रमजीवी की तरह खुद कम्पोजिंग व प्रिंटिंग कर रोजी रोटी की व्यवस्था की, मजदूर, किसान, पीड़ित के लिए संघर्ष किया। व्यवस्था के विरुद्ध जलसे, नुक्कड़ सभायें कीं। तब समाजवादी चिन्तक आचार्य नरेंद्रदेव, अनंतराम जायसवाल का जमाना गुजर चुका था। डॉ. राममनोहर लोहिया, जनेश्वर मिश्र, बाबू गेंदा सिंह, मुलायम सिंह यादव, रामशरण दास, प्रताप भैया आदि समाजवादी राजनीति में सक्रिय हो रहे थे। देश में डॉ. लोहिया के गैर कांग्रेसवाद की बयार बहने लगी थी। उत्तर प्रदेश में रामचंद्र विकल संयुक्त विधायक दल के विधानसभा में नेता चुने गए। विकल साहब ने अपना मुख्यमंत्री का ताज उतार कर चौधरी चरण सिंह के सिर पर रख दिया।
संविद सरकार बनते ही केन्द्र व उत्तर प्रदेश में गैर कांग्रेसी दलों में सत्ता की घुड़दौड़ शुरू हो गई। मुजफ्फरनगर के पं. ब्रह्म प्रकाश शर्मा, ला. ओमप्रकाश, रिपुदमन त्यागी, श्याम सिंह त्यागी, सत्यप्रकाश त्यागी, मेजर जयपाल सिंह, अमीर उद्दीन तुफानी, सत्यवीर अग्रवाल, हसन कौसर, जयप्रकाश शर्मा आदि अनेक गैर कांग्रेसी सोशलिस्ट, प्रजा सोशलिस्ट और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की राजनीति में सक्रिय रहे।
मैं यहां सोशलिस्ट पार्टी का इतिहास नहीं बता रहा हूं। यह एक बड़ा और गम्भीर विषय है। सिर्फ यह उल्लेख कर रहा हूं कि मुजफ्फरनगर के दो समाजवादी, जिन्हें वास्तविक समाजवादी माना जाता था, उनमें से एक अमीर उद्दीन तूफानी पीड़ित और
पसमांदा तबके लिए लड़ते, संघर्ष करते मर गया। यह जुझारू समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया का दीवाना था।
मैंने शुरू में 13 नवम्बर को दिवंगत होने का उल्लेख किया है, उस समाजवादी का नाम पीताम्बर सिंह त्यागी है। पीताम्बर त्यागी का जन्म 5 मार्च 1930 को सहारनपुर जिले के ग्राम भरतपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम किशनलाल त्यागी था, जो एक सामान्य किसान थे। पीताम्बर त्यागी का बचपन, स्कूली शिक्षा व युवावस्था और बुढ़ापा मुजफ्फरनगर में ही गुजरा। इनकी ननिहाल ग्राम खुड्डा में थी और एक प्रकार से ननिहाल वालों ने ही इनकी परवरिश की।
रोहाना के अमृत कॉलेज से ग्रेजुएशन कर मुजफ्फरनगर के अपने समय के सबसे बड़े छापाखाने कृष्णा प्रेस में प्रूफ रीडिंग के काम से करिअर शुरू किया। दिल्ली के टाइम्स ऑफ इंडिया प्रेस में प्रूफ रीडर की नौकरी मिल गई थी किन्तु उन्होंने मुजफ्फरनगर में रहना पसन्द किया। कृष्णा प्रेस के मालिक लाला श्रीकिशन प्रेस बेच कर दिल्ली चले गये तो सरवट गेट, अंसारी रोड, गुल्लर की सराय में निजी छापाखाना खोला। बाद में आनंद मार्केट में प्रेस लगाया किन्तु समाजवादी आंदोलनों, प्रदर्शनों में भाग लेते रहे। मुजफ्फरनगर में भी कई धरने प्रदर्शन किए और पीड़ितों की आवाज उठाई। डॉ. राममनोहर लोहिया और राजनारायण सिंह के आह्वान पर वार्षिक सम्मेलनों में शिरकत की किन्तु संगठन में कोई पद या आम चुनाव के लिये पार्टी के टिकट की कामना नहीं की। एक ओर जीविका के लिए कठोर परिश्रम करते रहे दूसरी ओर अवाम के लिए संघर्ष करते रहे।
मुजफ्फरनगर के आनन्द मार्केट में भास्कर प्रेस के नाम से छापाखाना खोला था जो वास्तव में समाजवादी विचार के लोगों का बैठक स्थल था। मुझे याद है जब संविद सरकार में कैबिनेट मंत्री प्रभु नारायण सिंह आनन्द मार्केट के पार्टी कार्यालय (भास्कर प्रेस) आये थे तब पीताम्बर त्यागी ने उन्हें और अन्य सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं को अल्युमीनियम की एक बड़ी केतली में चाय मंगा कर पिलाई और चाय के साथ एक-एक नमकीन बिस्कुट दिया, तब प्रभु नारायण सिंह बड़े प्रसन्न हुए और बोले- 'यह एक समाजवादी की चाय है।'
दशकों पहिले, जब राजनारायण जी केन्द्र में मंत्री नहीं बने थे, रुड़की जाते हुए आनन्द मार्केट, मुजफ्फरनगर के सामने रुके। पैर में चोट के कारण जीना चढ़ कर प्रेस में जाना संभव न था। अपने सहायक के. कुमार को ऊपर भेजकर पीताम्बर त्यागी को नीचे बुलाया। उस समय मैं और नरेन्द्र बाल्यान (गोयला) त्यागी जी के साथ प्रेस कार्यालय में बैठे हुए थे। हम तीनों नीचे आये। नेता जी ने बताया कि रुड़की जा रहे हैं। फिर बोले- 'पीताम्बर, भूख लगी है।' उसी समय कार के पास से एक हथठेली वाला गुजरा। ठेली पर चना, मुरमुरे (लाई) रखे थे। पीताम्बर और नेता जी एक साथ बोले- 'रोको ! रोको !!' कार की पिछली सीट पर नेताजी बैठे थे। इंडियन एक्सप्रेस अखबार को खोल कर उस पर चने रखवाये और बोले- 'खाये चना, रहे बना।' फिर पीताम्बर सिंह की पीठ थपथपायी और रुड़की चले गये।
पीताम्बर औघड़ किस्म का आदमी था। शुरू में पैंट-सूट-टाई और फिर सारा जीवन कुर्ता पायजामा पहना। मुझे मालूम है कि पत्नी रामरती देवी ने एक आदर्श भारतीय नारी की भांति पीताम्बर त्यागी के संघर्ष काल में उनका साथ निभाया।
एक घटना का और उल्लेख करना चाहूंगा चौधरी चरण सिंह की पार्टी के नेता और उनके एक रिश्तेदार उत्तरप्रदेश में मंत्री बनने के इच्छुक थे। उनका छोटा बेटा मेरे पास आया और बोला- यदि पीताम्बर त्यागी राजनारायण से सिफारिश करायें तो पापा को बनारसी दास जी मंत्री बना देंगे। मैं और पीताम्बर जी पहले चौधरी साहब से मिले, फिर माताजी (गायत्री देवी) और राजनारायण जी से। वे महानुभाव मंत्री बन गये किन्तु न तो पीताम्बर त्यागी के पास वे आये, न कभी त्यागी जी अहसान जताने उनके पास गये। अब तो वे नेता जी भी दिवंगत हो चुके हैं।
पीताम्बर त्यागी ने आम आदमी और सर्वनिरपेक्ष समाजवादी की तरह अपनी जिन्दगी काट दी। 6 महीने से अनाज का एक दाना भी मुंह में नहीं गया। मुझे यह संतोष जरूर हैं कि उनके पुत्र दिनेश त्यागी ने अंतिम दिनों में उनके दर्शन करा दिये। आंखें बन्द थीं, किन्तु जब विनोद ने मेरा नाम बताया तो बोले- अच्छा, गोविन्द वर्मा। बस यही उनसे मेरी अंतिम मुलाकात थी। भगवान् उसको सद्गति प्रदान करे।
गोविंद वर्मा (संपादक 'देहात')